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________________ ४१ श्री जम्बूस्वामी चरित्र इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह शिख आदरौ। जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ॥" - इतना कहकर भावदेव मुनिराज तो वन में चले गये, परन्तु यहाँ मुनिराज के मुखारविंद से धर्मामृत का पान कर भवदेव ब्राह्मण के अन्दर संसार, देह, भोगों के प्रति कुछ विरक्ति के भाव जागृत हो उठे। उसने सकल संयम धारण करने की भावना होने पर भी उसी दिन विवाह होने से अपने को महाव्रतों को धारण करने में असमर्थ जान कर अणुव्रत ही अंगीकार कर लिये। परम सुख दाता जिनमार्ग को पाकर उसके हृदय में मुनिराज को आहारदान देने की भावना जाग उठी। उसने आहारदान देने की विधि ज्ञात की और अतिथिसंविभाग की भावना से आहारदान के समय अपने द्वार पर द्वारापेक्षण कर मुनिराज के आगमन की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि संयम हेतु आहारचर्या के लिये मुनिराज नगर में आते दिखे। मुनिराज को आते देख वह नवधाभक्तिपूर्वक बोला - ___“हे स्वामिन् ! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु! अत्र, अत्र, अत्र ! तिष्ठो, तिष्ठो, तिष्ठो! मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि ! आहार-जल शुद्ध है! - इसप्रकार मुनिराज को पड़गाहन कर गृह-प्रवेश कराया, उच्च आसन दिया एवं पाद-प्रक्षालन तथा पूजन करके आहारदान दिया। पुण्योदय से उसे आहारदान का लाभ प्राप्त हो गया। भवदेव श्रावक के हर्ष का अब कोई पार न रहा। सिद्ध-सदृश यतीश्वर को पाकर वह अपने को कृतार्थ समझने लगा और आनंद-विभोर हो स्तुति करने लगा - धन्य मुनिराज हमारे हैं, अहो! मुनिराज हमारे हैं॥टेक॥ धन्य मुनिराज का चिंतन, धन्य मुनिराज का घोलन। धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज की थिरता॥१॥ धन्य मुनिराज का मंथन, धन्य मुनिराज का जीवन। धन्य मुनिराज की विभुता, धन्य मुनिराज की प्रभुता॥२॥
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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