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________________ १७९ १७९ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ११. बोधिदुर्लभ भावना सामग्री सभी सुलभ जग में, बहु बार मिली-छूटी मुझसे। कल्याण-मूल रत्नत्रय परिणति, अब तक दूर रही मुझसे।। इसलिए न सुख का लेश लिया, पर में चिरकाल गँवाया है। सद्बोध हेतु पुरुषार्थ करूँ, अब उत्तम अवसर पाया है। १२. धर्म भावना शुभ-अशुभ कषायों रहित होय, सम्यक्चारित्र प्रगटाऊँगा। बस निजस्वभाव-साधन द्वारा, निर्मल अनर्थ्य पद पाऊँगा। माला तो बहुत जपी अबतक, अब निज में निज का ध्यान धरूँ। कारण परमात्मा तो अब भी हैं, पर्यय में प्रभुता प्रगट करूँ। ध्रुव स्वभाव सुखरूप है, उसको देखें आज। दुःखमय राग विनष्ट हो, पाऊँ सिद्ध समाज॥ इसतरह श्री विद्युच्चर आदि मुनिवरों ने शाश्वत शरणभूत निज ज्ञायकस्वभाव की लीनता द्वारा संसार की अनित्यता, अशुचिता, अशरणता जानकर, शुद्धोपयोग में अभिवृद्धि करते हुए अर्थात् चैतन्यमयी आत्मा का प्रचुर स्वसंवेदन करते हुए अथवा बारह भावनाओं को भाते हुए सभी प्रकार के परीषहों पर जय प्राप्त की। उपसर्ग दूर होते ही विद्युच्चर मुनिराज आदि सभी मुनिन्द्रों सहित ऐसे शोभ रहे हैं, जैसे कि अग्नि-पाक से शुद्ध हुआ सोना शोभता है। उनके बदन के रोम-रोम में चैतन्य की वीतरागता झलकने लगी। चैतन्य के सारे ही गुण उपसर्ग-परीषह रूपी अग्नि से शुद्ध होकर बाहर झलकने लगे। आहाहा...! जिनका आत्मद्रव्य आनंदमय, गुण आनंदमय, पर्याय आनंदमय, जिनकी स्वांस और प्रस्वांस आनंदमय, जिनकी चाल और ढाल आनंदमय, अहो! सम्पूर्ण जीवन आनंदमय, स्वयं के भोग और उपभोग आनंदमय और देखनेवालों को भी दिखें तो आनंदमय, उनकी वाणी आनंदमय ! सर्वत्र चैतन्य के अतीन्द्रिय आनंद का ही साम्राज्य!
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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