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________________ १५६ जैनधर्म की कहानियाँ तैयारियाँ होने लगीं। वे अनंतानंत गुणमयी ध्रुव ज्ञायक प्रभु की प्रभुता में केलि करने लगे। संयोग एवं संयोगीभावों की अनित्यता, अशरणता, अशुचिता का विचार कर, निज प्रभु की शाश्वतता, सदा शरणशीलता, त्रिकाल शुचिता एवं पूर्णता को जानकर वे उसी में रम गये। बस, अब क्या था ? जो भाता था, वह मिल गया । शुद्धाचरणमयी जम्बूस्वामी मुनिवर को लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों प्रकार के जंगल प्राप्त हो गये। जं + गल = जंगल अर्थात् जमे - जमाये ध्रुव ज्ञायक प्रभु में परिणिति जम गई तो गलने योग्य मोह - राग-द्वेषादि गल गए। ऐसे जीवों का वास भी सहजपने वन जंगल में ही हुआ करता है। वहाँ अप्रतिबद्ध विहारी हो एकाकी संयम की साधना करने लगे । निर्ग्रन्थ जम्बूस्वामी की विरागता एवं उपशमरस झरती शांत मुद्रा को लख, कितने ही शुद्ध सम्यक्त्व धारी राजाओं ने भी अपनी आत्मा का प्रचुर स्वसंवेदन प्राप्त करने के लिये शुद्धोपयोगमयी एवं यथाजात रूप जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। लेकिन जो महाव्रत को धारण करने में असमर्थ थे, उन्होंने दो कषाय चौकड़ी के अभावस्वरूप आत्मरमणतारूप श्रावक के व्रत अंगीकार किये। कितने ही पात्र जीवों ने निजस्वरूप के दर्शन करानेवाला सम्यग्दर्शन प्राप्त किया । आहाहा...! श्री जम्बूस्वामी के वैराग्य ने धर्म का मौसम ला दिया, सोई हुई चेतनाओं का वीर्य उछल पड़ा, उनके परिणाम धर्म गंगा में गोते लगाने लगे। आइए ! अब हम राजकुमार विद्युच्चर चोर एवं ५०० राजकुमार चोरों का क्या हुआ, उसे देखें । मुनिपने में चोरों का परिवर्तन जम्बूकुमार एवं उनकी नवपरिणीता चार रानियों की गुप्तरूप से चर्चा सुनने वाला विद्युच्चर चोर वास्तव में चोर नहीं था, परन्तु राजकुमार था। वह सम्पूर्ण कलाओं में कुशल हो गया था, अभी उसे चौर्यकला सीखना और शेष रह गयी थी, अतः उसने उसे भी सीखा और चौर्यकर्म करने लगा, इसलिए वह चोर नाम से
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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