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________________ १५० जैनधर्म की कहानियाँ हो गई होने से, अनुपचार रत्नत्रयरूपी मार्ग पर सम्यक् गति ही परमार्थ समिति है और ये समितियाँ सत् दीक्षा रूपी कान्ता की सखी होने से मुक्ति - साम्राज्य का मूल है । ( ११-१५) पंचेन्द्रिय-विजय स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इनमें से स्पर्शन इन्द्रिय के आठ, रसना इन्द्रिय के पाँच, घ्राणेन्द्रिय के दो, चक्षुरेन्द्रिय के पाँच और कर्णेन्द्रिय के दो विषय हैं। इन सभी पर मुनिराज विजय प्राप्त करते हैं - - - गरम, (११) स्पर्शनेन्द्रिय विजय :- हलका भारी, कड़ा-नरम, ठंडा-‍ रुखा-चिकना ये आठ स्पर्शनेन्द्रिय के विषय हैं। मुनिराज कठोर जमीन, पाषाण आदि के मिलने पर खिन्न नहीं होते, नरम आसन आदि पर तो मुनिराज बैठते ही नहीं, क्योंकि उनके तो सर्व परिग्रह का नव कोटि से त्याग ही होता है । जंगलवासी संत तो गर्मी से तप्त शिलादि हो या ठंड से हिम समान पाषाणादि हों, शीतकाल में ठंडी-ठंडी हवा चलती हो या ग्रीष्मकाल ऐसी गर्म हवा चलती हो कि जिससे भयंकर लू आदि लग जाती है; परंतु संतों को तो सबमें समता भाव है। वर्षाकाल में वे वृक्षों के नीचे ध्यानस्थ खड़े रहते हैं। चाहे सिर पर वर्षा की धारा बह रही हो अथवा शीतकाल में समुद्रों के किनारे बर्फ जम गया हो अथवा ग्रीष्मकाल में पर्वत की शिखा पर शरीर को जला देनेवाला तापमान हो; परन्तु समता की मूर्ति मुनिराज आराधना से विचलित नहीं होते । (१२) रसनेन्द्रिय विजय :- खट्टा मीठा, कड़वा, चिरपरा और कषायला, सरस या नीरस, स्वादिष्ट या बे-स्वाद, ठंडा या गर्म, कैसा भी भोजन मिल जाय, अथवा अंतराय हो जाय, जिसमें पानी ही न ले पावें, इसप्रकार कई दिनों तक पानी आदि के अभाव में प्राण भी छूट जाते हैं, परन्तु धीर-वीर साधु अपनी आराधना में अडिग रहते हैं । (१३) घ्राणेन्द्रिय विजय :- घोर जंगल में कहीं से अति दुर्गन्ध दुर्गन्ध आती हो, कोई कषायी जीव ने आकर पास में ही अग्नि पशु आदि होमे हों, उससे उत्पन्न दुर्गन्ध आदि सहन नहीं कर
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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