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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १४५ हेतु वन की ओर प्रस्थान कर दिया। अहो! श्री जम्बूकुमार की वनयात्रा में राजा, पिता एवं नगरवासी सभी कुमार की पालकी हाथों-हाथ ले जाते हुए वीरशासन एवं वैरागी कुमार की महिमा से आकंठ-पूरित हृदय से चल रहे हैं। पीछे-पीछे माता जिनमती एवं चारों वधुएँ भी वैराग्यरस की अभिवृद्धि करती हुई चल रही हैं। जिस वन में परमपूज्य गुरुवर श्री सुधर्माचार्य विराजमान थे, अब वह स्थान निकट आ गया है। जब सभी जन चारों ओर का नजारा देखते हैं, तब उन्हें आश्चर्य होता है कि चारों ओर के वन-वृक्ष फल-फूल से युक्त शोभ रहे हैं - "अरे! ये क्या है? क्या इन वृक्षों को भी जम्बूकुमार के वीतरागी पथ का हर्ष हो रहा है? क्या ये मीठे मधुर फल अपने स्वाद के विकास के द्वारा मुक्ति का आनंदमयी स्वाद चखने को प्रेरित कर रहे हैं? या ये शीतल मंद सुगंधमयी पवन शांत स्वभाव की शाश्वत शीतलता का आनंद बहाने के लिए ही बह रही है? क्या ये निरालंबी वृक्ष-समूह कुमार को निरालंबी चैतन्य के अनंत गुण समूह में मग्न होकर स्वावलम्बन का मार्ग दिखा रहे हैं? क्या ये चारों ओर की वसुधा सनाथ होकर अनाथों को सनाथ बनकर जीने का संदेश दे रही है? धन्य जिनशासन! धन्य वीतरागियों की वीतरागता! धन्य भव-अंत का पंथ! आपका साथ पशु-पक्षी, नर-नारी, देव-देवियाँ सभी प्रमुदित चित्त से दे रहे पालकी में विराजमान जम्बूकुमार अपलक पूज्य गुरुवर के पावन दर्शन के लिए लालायित हैं। दूर से ही गुरुवर को अस्ति-स्वभाव की मस्ति में मस्त देख कुमार पालकी को तत्काल वहीं रोक देते हैं और तत्काल पालकी से उतरकर अति शीघ्रता से गुरुपद-पंकज को पाने के लिए पैदल चल देते हैं। जैसे अनेक वर्षों के विरह के बाद अपने राज्य को लौटने वाले श्रीरामचन्द्रजी एवं सीतामाता से मिलने के लिए भरत आतुर हो उठे थे और तब वे चारों तरफ निहारते थे और कहते थे - "अरे वायुमंडल! क्या तुममें यह शीतलता क्या मेरे भ्रात के स्पर्श से आई है ? हे नभमंडल में विचरण करने वाले पक्षीगण!
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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