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जैनधर्म की कहानियाँ प्रज्ञा के जो धनी हैं, सम्पूर्ण विद्याओं के जो निलय हैं, वज्रमयी अंग के जो धारक हैं, पुण्य की जो मूर्ति हैं, पवित्रता जिनका जीवन है, शांति जिनकी राह है, अहिंसा के जो पुजारी हैं, अनेकांतमयी वाणी जिनका वचन-श्रृंगार है, चक्रवर्ती के समान आज्ञा की प्रभुता जिनको वर्तती है, अनेक गुणों से जो अलंकृत हैं, चार-चार देवांगनाओं जैसी सुन्दर गुणवती कामनियों के द्वारा वाचनिक एवं शारीरिक कामोत्पादक चेष्टाओं की बौछारें पड़ने पर भी जो रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए - “धन्य-धन्य वे सूर साहसी, मन सुमेर जिनका नहीं काँपे", निज शुद्धात्मा जिनका ध्येय है और मोक्ष जिनका साध्य है, . ऐसे श्री जम्बूस्वामी का चरित्र कहने में यद्यपि महा मुनीन्द्र ही समर्थ हैं तो भी आचार्य परम्परा के उपदेश से आये हुए इस महान चरित्र को मेरे जैसे क्षुद्र प्राणी भी रच रहे हैं, इसका मूल कारण है कि मेरा मन बारंबार इसके लिये प्रेरित कर रहा है। यह साहस तो ऐसा है, जैसे मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा संचलित मार्ग में भय के भंडार हिरण भी चले जाते हैं तथा जिनके आगे अजेय योद्धा चल रहे हों, उनके साथ साधारण योद्धा भी प्रवेश कर जाते हैं। इसीप्रकार सूर्य को दीपक दिखाने जैसा मेरा यह साहस है।
विशिष्ट पुरुषों के चितवन से मन तत्काल वैराग्य की प्रेरणा पाता है और सातिशय पुण्य का संचय करता है। आचार्यों ने कहा भी है कि मन की शोभा वैरागी रस से है, बुद्धि की शोभा हितार्थ के अवधारण में है, मस्तक की शोभा नव देवों को नमस्कार करने में है, नेत्रों की शोभा शांत-प्रशांत वीतरागरस झरती मुखमुद्रा के निहारने में है, कान की शोभा वीतरागमयी गुणों के श्रवण करने में है, घ्राण की शोभा आत्मिक सुख-शांतिदायक स्वास-प्रस्वास के लेने में है, जिह्वा की पवित्रता आत्मा-परमात्मा के गुणस्तवन में है, हृदय की शोभा अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में हित का मार्ग चुनने में है, भुजाओं की शोभा शांतरस गर्भित वीररस में है, हस्तयुगल की शोभा पात्रदान देने में, जगत के जीवों को अभयदान देने में और वीतरागता के पोषक वचनों को लिखने आदि में है, उदर की गंभीरता आत्महितकारक गुणों को संग्रहीत करने में है, पीठ की शोभा प्रतिकूलता के समूह में भी धर्म के मार्ग में सुमेरुसमान दृढ़ - अचल रहने में है।