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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १२५ के भय से मैं इस संसार में रुकना नहीं चाहता हैं।" तब रूपश्री तुनककर अन्य रानियों से बोली - "तुम लोगों को क्या हो गया है? क्या तुमने तत्त्वचर्चा करने के लिए ही विवाह किया है ? इसतरह तो स्वामी अवश्य ही दीक्षा धारण कर लेंगे।" उसकी आँखों में आँसू भर आये, वह पुन: बोली - “नहीं-नहीं, जरा स्वामी को दृष्टि उठाकर हमारे रूप-सौन्दर्य को तो देखने दो। अरे देखो तो कैसे बाल-ब्रह्मचारी यतीश्वर की तरह नासाग्र दृष्टि से बैठे हैं।" आकुलित स्वर में काँपती-सी बोल रही थी रूपश्री - "अरे रे! धिक्कार है तुम्हारे पत्नीत्व को। क्या तुम भूल गईं गृहस्थ धर्म के विवेक को? अरे! आत्मा-आत्मा और वैराग्य की बातें छोड़ो! क्या तुम वैराग्य की बातें करके स्वामी को वन-जंगल में जाने का आमंत्रण नहीं दे रही हो? अरे! पति को अपनी ओर ढालना क्या हमारा कर्तव्य नहीं है? हे स्वामिन् ! वैराग्य की बातें भूल जाइये - अभी आप हमारे हैं, हमारे प्राणाधार हैं। हम अभी आपको वन में नहीं जाने देंगी, दीक्षा नहीं लेने देंगी। प्राणनाथ! आप मेरी बहिनों की बातों को चित्त से उतार कर हम पर प्रसन्न होकर उपकृत कीजिए।" तब अत्यंत गंभीर होकर, शांत चित्त होकर कुमार बोले - “हे विह्वल चित्ते! हे विषय-भोगों में रंजायमान बुद्धि की धारक! सचमुच तुम्हारे तीव्र मोह का उदय भासित होता है, जो तुम्हें आनंदमयी आत्मा की बात नहीं सुहाती, साक्षात् नरक-निगोद एवं विषय-भोगों से दूर ले जानेवाली साक्षात् मुक्तिदाता ऐसी चर्चा, जो रत्नत्रय का कारण है, आनंद का कारण है। क्या यह चर्चा तुम्हें नहीं सुहाती है ? अरे! अब तुम ही सोचो - क्या , भद तुम्हें भव बढ़ाने के लिए मिला है? नहीं, नहीं भदे। यह भव तो अनंत भवों का अभाव करने के लिए मिला है। और जहाँ तक विषय-भोगों की बात है तो इन्हें हमने कब नहीं भोगा? अरे! यह क्रीड़ा तो
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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