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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १२३ कमार बोले - "हे विरक्तचित्ते! तुम विरक्ति को छिपाकर व्यर्थ ही बातें करती हो। यह बात तो परम सत्य है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भला-बुरा नहीं करता। संयोग नहीं, परन्तु संयोगी भाव ही बुरा करते हैं और असंयोगी (वीतरागी) भाव भला करते हैं। तथा जब तुम यह जानती हो कि मेरी इस भव में मुक्ति निश्चित है, तो फिर भोगों में नहीं फँसना एवं दीक्षा भी तो निश्चित ही है। कोई एक ही पर्याय निश्चित नहीं होती, परंतु प्रत्येक द्रव्य की अनादि-अनंत काल की सभी पर्यायें निश्चित होती हैं। फिर तुम वस्तु-स्वरूप को बदलने का निष्फल प्रयत्न क्यों करती हो? जरा, तुम ध्यान से सुनो - क्या इस संसार में जन्म-मरण के अनन्त दुःखों से तुम्हारा चित्त व्यथित नहीं हुआ है ? क्या जगत के दुःख तुम्हें प्रत्यक्ष ही नहीं दीखते हैं? क्या आकुलता-व्याकुलता, संक्लेश आदि तुम्हें प्रत्यक्ष ही दुःखरूप भासित नहीं होते? सचमुच ही ये दुःखरूप हैं। अरे, रे! नरक-निगोद एवं चार गति, चौरासी लाख योनियों के दुःखों से मेरा आत्मा थक चुका है, अब तो मुझे मात्र मुक्ति की ही अभिलाषा है, अन्य किंचित् भी कोई भावना नहीं है।" जो चहुँगति दुःख से डरे, तो तज सब परभाव। तब पद्मश्री बोली - "हे स्वामिन् ! जिनशासन एवं आचार्यों की देशना में तो ऐसा आया है कि जो पर-पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानता है, उसको सच्ची उदासीनता नहीं है। सच्ची उदासीनता तो उसका नाम है, जहाँ वीतराग होकर कोई पर-पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित ही न हो। यदि स्वर्ग-मोक्ष के लोभ से और नरक-निगोद के प्रति भय के कारण विषय-भोगों से उदासीन हो जाओगे तो यह द्वेषगर्भित उदासीनता होगी, जो अकार्यकारी है। अत: कुछ समय और ठहर कर आत्म-साधना करके रत्नत्रय प्रगटाकर जिन-दीक्षा धारण करोगे तो उचित ही होगा नाथ!" तब किंचित् मुस्कुराते हुए कुमार बोले - “हे आगमकुशले! यह बात सत्य ही है कि कोई पर-पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है, और द्वेषरूप उदासीनता सच्ची उदासीनता नहीं है; परन्तु मैं कोई तुमसे अथवा भोग-सामग्री से द्वेष करके अथवा मोक्षादि के लोभ से विरक्त
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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