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________________ ११९ श्री जम्बूस्वामी चरित्र में भावपूर्ण अनुनय-विनय है। आप मात्र इसका कारण बताइये। बोलिये स्वामी! कुछ तो बोलिये! हम चारों आपके वचन-श्रवण कर अपने कर्ण एवं मन को पवित्र करना चाहती हैं।" अति-अति आग्रह करने पर कुमार ने अझैन्मीलित नेत्रों से चारों वधुओं को ऐसे देखा जैसे कोई धर्मगुरु अपने शिष्यों को देखता है। वे सोच रहे थे कि प्रभातकाल में फलीभूत होनेवाली मेरी भावनाओं से ये चारों अपरिचित हैं, अतः अकस्मात् क्या बोला जाय? फिर भी वे कुछ ऐसा बोले - “हे भद्रो! मैं आप लोगों से रूठा नहीं हूँ और अपरिचित व्यक्तियों से रूठने का कुछ कारण भी नहीं होता।" तब चारों वधुयें हाथ जोड़कर पूछती हैं - "हे नाथ! तो फिर ऐसे अवसर पर आपके इस प्रकार के व्यवहार का क्या कारण है?' कुमार पुनः मौन हो विरक्त योगी की तरह बैठ गये हैं। चारों वधुओं ने उनसे कुछ बुलावाने हेतु तथा उनके मन को अपनी तरफ आकर्षित करने हेतु अपनी हाव-भावपूर्ण वाचनिक एवं कायिक चेष्टाएँ भी की, परन्तु वैराग्य रस के सामने राग के सम्पूर्ण बाण विफल हो गए। उन वधुओं का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप हवा में तीर चलाने जैसा निष्फल गया। ____ पुनः वधुयें बोलीं - "हे स्वामिन् ! हम सभी आपकी भावना जानना चाहती हैं।" ___ तब जम्बूकुमार बोले - “हे देवियों! आपने कहा कि ऐसा अवसर, लेकिन कैसा अवसर? यह तो मानव भव का वीतराग के पथ पर चलकर अतीन्द्रिय आनंद का प्रचुर स्वसंवेदन कर शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति प्राप्त करने का मंगल अवसर है। मैं भी यही भावना भाता हूँ कि अब का प्रभात मुझे प्रचुर स्वसंवेदन के रूप में फलीभूत हो। आत्मानंद में अभिवृद्धिरूप जैनेश्वरी दीक्षा से भानु-उदय हो, मंगलमयी प्रभात हो - यही मेरी भावना है।" बुद्धिमत्ता एवं रूप-लावण्य में पगी हई चारों वधुओं ने कुमार को रिझाने के लिये पुनः रागरंग भरी बातें की। किसी वधु ने उनके पैरों को पकड़कर, किसी ने हाथों को पकड़कर, किसी ने
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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