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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १०९ अपने स्वामी के कार्य को निष्पन्न जान प्रसन्न हो अपने धाम को लौट गया। पूज्य श्री सुधर्माचार्य का दर्शन कुछ दिन बीत जाने पर राजगृही नगर के उपवन में पूज्य श्री सुधर्माचार्य नग्न दिगम्बर सन्त का आगमन हुआ। जैसे ही राजा तथा जम्बूकुमार आदि को ज्ञात हुआ, वे तुरंत आचार्य श्री के दर्शनार्थ वहाँ पहुँचते हैं। मुनिवरवृन्दों सहित पूज्य श्री सुधर्माचार्य धर्मामृत की वर्षा कर रहे हैं। श्रेणिक राजा, जम्बूकुमार तथा नवीन रानी विशालवती आदि अपना महाभाग्य जगा जानकर पूज्य गुरुवरों को अंजुलि जोड़कर नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देकर वहीं बैठकर धर्मामृत का पान करने लगे। श्रेणिक राजा अपने भाग्य को सराहने लगे - "अहो! मुझे राजलक्ष्मी, जयलक्ष्मी के साथ-साथ धर्मलक्ष्मी का लाभ भी प्राप्त हुआ।" उसके बाद श्रेणिक राजा वीतरागी धर्म एवं धर्म के धारकों की महिमा करते हुए अपनी रानी विशालवती के साथ राजमहल वापस आये। धरम करत संसार सुख, धरम करत निर्वाण। धर्म-पंथ साधे बिना, नर-तिर्यंच समान । सोने में सुगंध राजा श्रेणिक रानी सहित राजमंदिर को चले गये, परन्तु विरक्तचित्त जम्बूकुमार पूज्य गुरुवरों की चरण की शरण में ही बैठे हुए हैं। उनका हृदय वीतरागी संतों के समान अतीन्द्रिय आनंद का प्रचुर स्वसंवेदन करने के लिए ललक रहा है। वे गुरुराजों की आनंद झरती शांत-प्रशांत वीतरागी मुख-मुद्रा को टकटकी लगाकर निरखे ही जा रहे हैं। कुछ देर बाद जम्बूकुमार आचार्यश्री के चैतन्यतत्त्व को मानो स्पर्श करते हुए उनकी स्तुति करने लगे - जंगल में मुनिराज अहो, मंगल स्वरूप निज ध्यावें। बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें ॥टेक॥
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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