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________________ १०७ श्री जम्बूस्वामी चरित्र के दर्शन करना चाहता हूँ।" रत्नचूल की उक्त भावना को देखकर कुमार ने उसे साधुवाद दिया। केरल से जम्बूकुमार का प्रस्थान मृगांक नृप ने अति हर्ष के साथ नाना प्रकार के मणि-रत्नों के आभूषण एवं वस्त्रादि भेंट करते हुए कुमार का सन्मान किया और व्योमगति विद्याधर को आज्ञा दी - "आप विमान में बैठाकर कुमार को उनके योग्य स्थान पहुँचाइये।" व्योमगति विद्याधर ने हर्षित-चित्त होकर अपने विमान में कुमार को बैठाकर प्रस्थान किया, पश्चात् राजा मृगांक ने अन्य आगंतुक योद्धागणों को भी विमानों द्वारा भेजा। राजा मृगांक स्वयं भी अपनी पत्नी एवं विशालवती कन्या को लेकर दूसरे विमान में पीछे से चलने लगा तथा ५०० विद्याधर योद्धा भी अपने-अपने विमानों पर चलने लगे। आकाश विमानों से भर गया। श्रेणिक राजा से भेंट सभी विद्याधरों ने अपने-अपने विमान आकाशमार्ग में ही स्थित रहने दिये। जम्बूकुमार उन सभी विद्याधरों को स-सम्मान राजा श्रेणिक के पास लाये। श्रेणिक महाराज अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे। आकाशमार्ग में विमानों की ध्वनि का शोर सुनकर वे उनकी ओर देख ही रहे थे कि इतने में दूर से ही जम्बूकुमार अनेक विद्याधरों के साथ आते हुए दिखाई दिये। राजा तुरन्त सिंहासन से उठे और आगे जाकर बड़े ही आदर के साथ जम्बूकुमार को हृदय से लगाते हुए बोले - “हे कुमार! बहुत दिन हो जाने से मेरा हृदय और मेरी आँखें तुम्हें देखने को तरस गईं थीं। अब बहुत दिनों बाद तुम्हें देखकर मेरा हृदय हर्ष से फूला नहीं समा रहा है।" राजा ने कुमार का हाथ पकड़ कर अपने ही निकट सिंहासन पर बैठा लिया। तथा आये हुए सभी विद्याधरों आदि से स्नेहपूर्वक क्षेम-कुशल पूछी। उसके बाद व्योमगति विद्याधर ने खड़े होकर परिचय
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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