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________________ [ छ ] दृष्टि से देखा जाता है। मुझे इसका अनुभव है। हमारे में वैचारिक उदारता तो बढ़ती जाती है पर सक्रिय औदार्य पनपने नहीं पाता, यही दुर्भाग्य का विषय है। _इस लेखसंग्रह में बम्बई से लगाकर कलकत्ता के बीच में आने वाले मन्दिर स्थित मूर्तियों के लेस हैं जो अद्यावधि अप्रकाशित थे । पुरातत्व संग्रहालयों की मूर्तियोंके लेख अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । ___ इस संग्रह को प्रकाश में लाने का पूरा श्रेय तो मेरे परमपूज्य गुरु महाराज उपाध्याय मुनि श्रीसुखसागरजी महाराज को है, जिन्होंने जबलपुर-सदर के गोलेच्छा परिवार को उपदेश देकर, इतिहास जैसे शुष्क विषय के साधन को प्रकाश में लाने के लिये आर्थिक सहायतार्थ उत्प्रेरित किया, अतः इस परिवार के, सजनता और सौजन्य की मूर्तिसम श्रावक श्रीसोहनलालजी गोलेच्छा आदि सब भन्यवाद के पात्र हैं। इसे मूर्त रूप देने और हर प्रकार से सुन्दर बनाने में श्रावक श्रीयुत जोरावरमलजी सांड और चन्द्रकान्ता प्रेस के सुयोग्य और सुश्शील व्यवस्थापक श्री 'नीरज" जी जैन ने जिस उत्साह प्रात्मीयता और सजगता का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। उन्हें धन्यवाद कैसे दिये जाय ? जपुर के श्रीसंघ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना भी अनिवार्य ही है जिनके विशेष श्राग्रह से हम सब को रुकना पड़ा और उसने सत्र प्रकार के साधनों को समुचित व्यवस्था की । जैनश्येतोवर धर्मशाला, ५ सराफाबाजार, जबलपुर म०प्र०। ) मुनि कान्तिसागर, ताः २७-१२-५० "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009681
Book TitleJain Dhatu Pratima Lekh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year1950
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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