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________________ [ परिशिष्ट भीतर ही इनका संग्रह हुअा होगा । कारण कि याग्नि के कण कुछ लेखों के संग्रह में परिलक्षित होते हैं । यतिका इतिहास-प्रेम अवश्य ही प्रसंशनीय है। इस प्रकार तीर्थ यात्रा विषयक दैनंदिनी लिखने की प्रथा यति समाज में रही है । ऐसी ही छह दैनंदिनी और भी मुझे प्राप्त हुई हैं ( एक में बीकानेर एवं तत्समीपवर्ती मन्दिरों के लेख एवं तन्निर्माताओं का उल्लेख है, एवं दूसरी गतवर्ष बनारस में राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद के घर से कुछ पुराने पत्र मिले थे । उनमें राजगृह, पावापुरी, लछवाड़, बिहार सरीफ और बनारस के लेख एवं विशिष्ट ज्ञातव्य उल्लिखित हैं। संभव है अन्वेषण करने पर इस प्रकार की और भी ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हो । ऐतिहासिक एवं विशिष्ट कुछ ऐसी भी घटनाएं होती हैं जिनका उल्लेख ग्रन्थों में न मिलकर ऐसे फुटकर पत्रों में मिल जाता है । सिद्धाचलजी की नवटकों में भिन्न-भिन्न स्थानों की प्रतिमाओं की संख्या देने की संग्राहक ने चेष्टा की है । ऐसी ही चेष्टा उन्नीसवीं सदी में मुनि रत्नपरी ने भी की थी। सापेक्षतः रत्नपरीक्ष अधिक सफल हुए। मध्यप्रदेश के कामठी, हींगनघाट, अमरावती, कारंजा, नागपुर आदि के जैन ज्ञान भण्डारों में एतद्देशीय सामाजिक और ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश डालने वाली फुटकर सामग्री प्रचुर पारमाण में उपलब्ध होती है परन्तु जैनों की इस ओर रुचि न होने के कारण प्रतिवर्ष दीमकों के उदर में प्रविष्ट हो रही है । प्रांत का दुर्भाग्य है कि सरकार भी सांस्कृतिक ठोस कार्य की ओर दुर्लक्ष्य किए हुए हैं । स्वतन्त्र भारत की शासन संस्था अपने इतिहास के प्रति इतनी बेदरकार रहे यह आश्चर्य ही नहीं अपितु खेद का विषय है। -मुनि कांतिसागर, श्री सिद्धाचल नी में नामेरी नकल है ॥५०॥ श्रीगणेशाय नमः ।। संवत १६७५ मिति (ते) सुरताणनूग्दीनजहांगीरसवाई विजयराज्येसाहिजादा .............१ । १ यह लेख "एपिग्राफिया इण्डिका" और प्राचीन जैन लेखसंग्रह पृष्ठ २४-५ में प्रकाशित हो चुका है अतः यहां देना उचित नहीं समझा ! सम्पादक, "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009681
Book TitleJain Dhatu Pratima Lekh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year1950
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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