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________________ ( २६ ) कार्यकुशलता के नाम से ओसवालों के गोत्रों को जो सृष्टि मिलती है वह पाठकों से छिपी नहीं है 1 शिलालेखों से जहां तक मेरा इस विषय में ज्ञान हैं, विक्रम को ११ वीं शादि से पूर्व के कोई लेखों में न तो उपकेशगच्छ का ही उल्लेख मिलता है और न कोई भलवंश अथवा उनके गोत्रों का नाम पाया जाता है । ओशियां में मुझे एक लेखसहित धातु की प्राचीन परिकर और एक खंडित पत्थर की मूर्ति की चरण चौकी मिली थी। वे 'जैन लेख संग्रह' प्रथम खण्ड के लेख नं० १३४, ८०३ में प्रकाशित हुए हैं। वे विक्रम सं० १०११ और ११०० के हैं। इनमें से सं० १०११ के लेख में केवल “उपकेशीयवत्य" मिला है। आचार्य देवगुप्तसूरि के नाम के साथ उपकेशगच्छ नाम नहीं है। दूसरा लेख स्पष्ट पढा नहीं गया परन्तु उसमें भी उपकेशगच्छ मालूम नहीं होता है । मुनि जिनविजयजो के प्राचीन जैन लेख संग्रह के द्वितीय खंड के लेख नं० ३१४ ( पृ० १७४ ) में प्रतिष्ठा कर्त्ता के गच्छ का नाम भोसवाल गच्छ लिखा है। यह उपकेशगच्छ का ही अपर नाम ज्ञात होता है । १३ वीं, १४ वीं शताब्दि के कई लेखों में प्रतिष्ठा कर्त्ता के गच्छ का उल्लेख नहीं है केवल प्रतिष्ठा कराने वालों की संज्ञा 'ऊशवंश' मात्र मिलते हैं । मैं यहां इस विषय पर अधिक लिखकर पाठकों का धैर्य नष्ट नहीं करना चाहता हू परन्तु लिखने का सार यही है कि इस विषय का वर्तमान साधन संतोषजनक नहीं है । ऊपर लिखा जा चुका है कि राजपूत आदि उच्च वर्णवालों को जैनी बना कर ओसवाल आदि वंशों को सृष्टि का कोई प्रामाणिक इतिहास आज तक नहीं मिले हैं। विक्रम को १७ वीं शताब्दि में बोकानेर राज्य में ओसवाल वंश के चच्छायत गोत्रीय दोवान कर्मचन्दजी हुए थे। इन के विषय में संस्कृत का 'कर्मचंद प्रबंध नामक अन्य मिलता है परन्तु इस में भी ओसवालों की उत्पत्ति का सन्तोषजनक विवरण नहीं है । इसकी सोपज्ञ टीका जैसलमेर के बड़े उपासरे में मैंने देखी थी । इस प्रकार जैनेतरों को दीक्षित करके ओसवाल बनाने का एक भी इतिहास प्राचीन जैनाचार्य का लिखा हुआ नहीं है। यदि ओसवालों की उत्पत्ति का समय विक्रम ष्ट शताब्दि के पश्चात् भी रक्खा जाय तो भी इस दीर्घ काल में बड़े २ विद्वान् जैमी आचार्यो की कमी नहीं थी । अतः इस विषय पर कुछ भी नहीं लिखे जाने का अवश्य कोई गूढ कारण होगा । श्रीमाल शाति की उत्पत्ति के विषय का भी यही हाल देखने में आता है । दन्त कथा और प्रवादों पर इतिहास नहीं लिखा जा सकता। ओसवाल थोमालों में घनिष्ट सम्बन्ध है अर्थात् इन दोनों में 'रोटी बेटी' एक हैं। धार्मिक fare में भी दोनों समकक्ष है । ओसवालों में जो अपना श्रीश्रीमाल गोत्र बताते बे अपने को श्रीमालों से भिन्न समझते हैं और ओसवालों के और २ गोत्रों की तरह श्रीश्रीमाल भी एक ओसवालों का गोत्र कहते हैं । यह भी रहस्यमय है । मैं यहां कोई सवाल अथवा श्रीमालों का इतिहास नहीं लिखता हूँ' । लेखों में ऐसी २ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । लेखों में जहां २ श्रीश्रीमाल पाये गये हैं उनकी अलग बालिका करके पुस्तक की सूत्रों में दिये गये हैं। परन्तु यह लेखों के 'श्रीश्रोमाल' ओसवाल ज्ञाति की शाखा हैं। अथवा केवल श्रीमालों के आगे 'श्री' विशेषण युक्त श्रीमालों का रूप है, यह ज्ञात नहीं होता। ऐसे २ विषय पर खोज को आवश्यकता है । "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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