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________________ लोद्रवा लोछ । लोद्र ) एक राजपून * को शाखा का नाम है । लोद्रपुर प्राचीन काल में इन्हीं लोढ़ राजपूतों को राजधानो थो! इतिहासों में मिलता है कि भारी देवगज जिनने प्रथम रावल की उपाधि ग्रहण को थी वे लगभग सं० ६०० ( ई० ८.२३ ) के देवगढ 4 में प्रथम राजधानो स्थापित किये थे। पश्चात् लोढ़ राजपूतों से लोद्रपुर ( लोवा ) छोन कर वहां र'जधानी ले गये ! उस समय लोद्रवा एक समृद्धिशाला बड़ा शहर था ! इसके बारह प्रवेशद्वार थे। इसी लोदवा का ध्वंसावशेष आज भी जैसलमेर शहर के उत्तर पश्चिम दस माइल एर वर्तमान है । रावल देवराज ने लोड़ों को पराजय करके इस नगर को सं० १०८२ में अपने अधिकार में किया था और रात्रल जेसल तक लोद्रवा भा देयों की राजधाना रहा । प्राचीन काल से ही यहां पर श्रीपार्श्वनाथजी का मंदिर था । भोजदेव रावल के गद्द। यंठने पर उनके काका जेसल ने महम्मद घोरी से सहायता लेकर लोदवा पर चढाई को थी। वहां रण में भोजदेव मारे गये थे और लावा नगर भी न हुआ था । पश्चात् राज्याधिकारी होने पर जेसल लोया का निरापद नहीं समझ वहां से राजधानी हटा कर सं० १२१२ (ई. ११५६ ) में जसलमेर नाम से दुर्ग बनाया था । सं. १६७ में भणसालो गात्राय सेठ थाहरूसाहजो ने वहां के श्रीपार्श्वनाथजी के उक्त मंदिर को, जो लोया विध्वंस होने के समय नष्ट हो गया था, पुनरुद्धार कराकर यह वर्तमान मंदिर बनवाया था और खरतरगच्छोय जिनराजसूरिजी से प्रतिष्टा कराई थो । यहाँ एक हो कोट में मेरु पर्वत के भाव पर पांच मंदिर बने हुए हैं। मध्य में श्रोचिंतामणि पाश्वनाथजी का बड़ा मूल मंदिर है और वारो कोने में चार छोटे मंदिर बने हुए हैं। मूल मंदिर के सभामंडप में शतदलपद्म यंत्र की प्रशस्ति का शिलालेख लगा हुआ है। मंदिर नं०१-४:- मूल मंदिर के (१) दक्षिण पूर्व, ( २ ) दक्षिण पश्चिम, (३) उत्तर पश्चिम, और ( ४ ) उत्तर पूर्व दिशा में ये वार मंदिर हैं। सं० १६६३ में उक्त थाहरूसाहजो अपनी भार्या, कन्या, पुत्र टाड साहेब लिखते हैं कि लाद राजपून कौनसो राजपूत शाखा से निकली थी निश्चित ज्ञात नहीं है, संभव है कि प्रमार से हुए होंगे। साहित्यावार्थ पं० विश्वेश्वरनाथजो अपने भारत के प्रावोन राजवंश' प्रथम भाग पृ. १६ में इन लोगों को प्रमार को शाखा बतलाये हैं। व्यासजो पृ० ३५ में इन लोगों को 'पडिहार राजपूतोद्धव लिखते हैं। *यह देरावर नाम से प्रसिद्ध है और वर्तमान में रायलपुर स्टेट के अन्तर्गत है । * खरतरगच्छावार्य जिनलाभपूरिजो का 'लोद्रपुर स्तम' में यहां के प्रदिर का पन्छा वन है और वह उपयोगी समझ कर परिशिष्ट में प्रकाशित किया गया । "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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