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________________ सं० १९३६ में कराई थी। संखपालेवा गोबोय घेता और वोपा गोत्रीय पांचा में वाहिक सम्बन्ध था और इन दोनों ने मिल कर दोनां मन्दिर बनवाये थे। संबो प्ता ने सकुटुम्य बड़ी धूमधाम से शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों को यात्रा कई वार को थो और श्रीसंभवनाथजी के मन्दिर को प्रसिद्ध तपपट्टिका आदि की प्रतिष्ठा कराई थी। इनके पश्चात् सं० १५८१ में इनके पुत्र वीदा के समय में यह प्रशस्त लगाई गई थो 1 ये सब विवरण प्रशस्ति में हैं। मन्दिर के बाहर दाहिने तरफ पाषाण के सुन्दर बने हुए दो बड़े २ हाथी रखे हुए हैं। इन दोनों पर धातु की मूर्तियां हैं जिनमें एक पुरुष की और दूसरी त्रो की है। मन्दिर प्रतिष्ठा कराने वाले सं० घेता और उनको भार्या सरसती की मूर्ति उनके पुत्र संघवी वादा ने सं० २५८० में प्रतिष्ठा कराई थी। इन में से केवल एक पर लेख (नं० २१५४ ) खुदा हुआ है। ___ उस समय जैसलमेर के गद्दी पर महारावल देवकरणजी थे। सं० १५३६ में प्रतिष्ठा के समय खरतरगच्छ के जिनसमुद्रसूरिजो उपस्थित थे । पश्चात् उनके प्रशिष्य जिनमणि कसूरिजी के समय में देवतिलकजी उपाध्याय मंदिर को प्रशस्ति लिखे थे और शिलावट घेता ने खोदो थो । जिनसुखसुरिजी रचित चैत्य परिपाटी स्तवन जो प्रकाशित हुआ है उस में श्रोशांतिनाथजी के मंदिर की मूर्ति संख्या के वर्णन में एक चरण लुटक हैं। मूर्ति संख्या बार प्रदक्षिणा में २५० और चौक में ४०० लिखा है। वृद्धिरतमाला में विंब संख्या ८४ है। श्रोअष्टापदजी के मंदिर की मूर्ति संख्या जिनमुखसूरिजी बाहर के प्रदक्षिणा में १३७, एक गंभारे में २६०, दूसरे में २८ गणधर के, कुल ४२५ लिखते हैं । वृद्धरत्नमाला में मूर्ति संख्या ४४४ है । ---इस मन्दिर में कोई प्रशस्ति देखने में नहीं आये। मृत्ति पर के लेख (नं० २३२८ ) से मिलता है कि सं० १५२६ * में भणशाली गोत्रीय सा० बोदा ने मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई थी। चैत्य परिपाटी स्तवनों में भी भणसाली गोत्रीय द्वारा मन्दिर धनवाये जाने का वर्णन है। इसी मन्दिर के द्वितल के एक कोठरी में बहुत सी धातुओं की पंचतीर्थी और मूर्तियों के संग्रह हैं। इन सवों में से जितने लेखों का मैं संग्रह कर सका हूं वे यथास्थान में मिलेंगे। यह मन्दिर तेमझिला बना हुआ है और प्रत्येक में चौमुखजी विराजमान हैं। जिनसुत्रसूरिजो के ईत्यपरिपाटी में यहां की मूर्ति संख्या प्रथम तल में १६०, दूसरे में १२६, और तीसरे में ४६३ कुल ८९ लिखा है । वृद्धिरत्नमाला में विंद संख्या १६४५ है । र स्वरतरगच्छोय प्रसिद्ध वाचक समयसुन्दरजी महाराज जैसलमेर में बहुत समय तक थे। उन्होंने यहां के भन्दिरों के बहुत से स्तवनों को रचना की थी। श्रीशांतिनाथजी और श्राअापदजो की स्तुति में मन्दिर के प्रतिष्ठा का आदि का विवरण मिलता है। यह भी परिशिष्ट से मिलेगा । . * वृद्धिरत्नमाला में मन्दिर प्रतिष्ठा का सं० १५६५ है परन्तु यह किस आधार पर लिखा गया ज्ञात नहीं होता। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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