SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुष्क मरुभूमि होने के कारण इस राज्य की जनसंख्या और आय अधिक नहीं है। पाठकों को आश्चर्य होगा कि ऐसे शांति के समय में भी राज्य की जनसंख्या जो ई. १८९१ में ११५७०१ थी वह घट कर ई. १९११ की जनसंख्या में ८८३११ रही । पुनः गत ई० १९२१ की जनसंख्या में केवल ३३३. हुई है। राज्य में रेलवे, तार वगैरह के अभाव के कारण न तो कोई व्यापार है और न यहां किसी तरह की उन्नति दिखाई पड़ती है । प्रसिद्ध जेन भंडार, मंदिर और कईएक प्राचीन कीर्तियों के सिधाय यह राजधानी और विशाल राज्य ऊजड़ सा दिखाई देता है। यहां और भी एक नई बात यह देखने में आई कि और २ देशी राज्यों की तरह चुंगी (Octroi) कर तो लगता ही है, एक मुंडकर ( per capita ) भी देना पड़ता है। अर्थात् बाहर से जो मनुष्य जैसलमेर आते हैं, लौटते समय एक को सरकार में आठ आने के हिसाब से कर चुकाना पड़ता है केवल ब्राह्मण, सन्यासी, यति, साधु वगैरह से नहीं लिये जाते हैं। जैसलमेर नरेश की विशेष कृपा के कारण दरबार के हुकम से मुझे तथा मेरे साथ के लोगों को कर मुक्त किया गया था। यह एक राजकीय सम्मान समझा जाता है। वारण भाटों के दफ्तरों में और मुता नैनसी की ख्यात आदि राजपुताने के ख्यातों में जो कुछ राजस्थान के विवरण मिलते हैं इन के सिवाय कोई भी प्राचीन श्रृंखलावद्ध इतिहास, कर्नल टाड साहेब के प्रसिद्ध राजपुताना के इतिहास के अतिरिक्त देखने में नहीं आता है। और २ देशी राज्यों की अपेक्षा जैसलमेर का इतिहास कम मिलता है। टाड साहब के मेमोयर्स ( Memoirs) से मुझे जहां तक उपलब्ध है वे स्वयं भी जैसलमेर नहीं गये थे। ई० १६२० में श्रीमान् पं० हरिदत्त गोविंद व्यासजी ने जैसलमेर का इतिहास' नामक पुस्तक प्रकाशित किया है और वहां मेरी अवस्थिति के समय आपने मुझे उक्त पुस्तक की एक प्रति देने की रूपा की थी । पंडितजो ने ऐतिहासिक सामग्री संग्रह कर के पुस्तक तैयार करने में जो परिश्रम उठाया है इस कष्ट के लिये पाठकगण अवश्य कृतज्ञ रहेंगे। परन्तु मुझे खेद के साथ लिखना पड़ता है कि ऐसे ऐतिहासिक प्रय में आप ने न तो कोई सूची और न कोई अध्याय अथवा विषय विभाग ही दी है 1 मैं यहां पुस्तक को समालोचना की दृष्टि से लिखना नहीं चाहता । परन्तु इतना सूचित करना कर्त्तव्य समझता हूं कि पण्डितजी ने पुस्तक में कई बातें विशेष खोज किये बिना ही लिखी है। आप उक्त पुस्तक के पृ० १४७ में लिखते हैं : "सम्वत् १८८८ में करनल लाकेट साहब जैसलमेर पधारे । येही प्रथम यूरोपियन है जिन्होंने भाटी राजधानी को अवलोकन करने का प्रथमावसर प्राप्त किया था।" परन्तु यह उक्ति भ्रमपूर्ण है। मुझे जहांतक ज्ञात है ई० १८३५ में सरकारी कार्य के उपलक्ष में बृटिश गवर्णमेन्ट की ओर से लेफ्टनेन्ट पोइलो, ट्रिवेलियन और मकेसन आदि कई. अंगरेज जैसलमेर गये थे और वहां कई दिनोंतक ठहरे थे, इसका हाल उन लोगों के पुस्तकों में मिलते हैं। उसी ई० १८३५ में महारावल गजसिंहजी ने स्वयं अंगरेजीका अभ्यास करने के लिये क्लिचर साहब नामक एक युरोपियन शिक्षक को नियुक्त करके उनको कलकत्ते से जैसलमेर थुलवाया था। इसके सिवाय मैं पूर्व में ही लिन चुका हूं कि ई० १८७४ में डा० बुलर और कोपी दोनों प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् जैसलमेर के जैन भंडार देखने पधारे थे। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy