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________________ ६--गुप्तलिपि, ई. स. की चौथी और पांचवीं शताब्दी ( लिपिपत्र १६-१७ ). गुप्तों के राज्य के समय सारे उत्तरी भारत में ब्राह्मी लिपि का जो परिवर्तित रूप प्रचलित था उसका कल्पित' नाम 'गुप्तलिपि रक्खा गण है. यह लिपि गुप्तवंशी राजाओं के, जो उसरी भारत के बड़े हिस्से के स्वामी थे, लेखों में, एवं उनके समकालीन परिवाजक और राजर्षिनुरुप वंशियों तथा उच्छुरुप के महाराजाओं के दानपत्रादि में, जो अधिकतर मध्यभारत से और कुछ मध्यप्रदेश से मिले हैं, पाई जाती है. ऐसे ही उक्त समय के अन्य राजवंशियों तथा साधारण पुरुषों के लेखादि में भी मिलती है. राजपूताना मध्यभारत' तथा मध्यप्रदेश में गुप्तकाल में भी कहीं कहीं दक्षिणी शैली की (पश्चिमी) लिपि भी मिल जाती है, जिसका एक कारण यह भी है कि लेख को लिखने के लिये बहुधा सुंदर अक्षर लिखनेवाला पसंद किया जाता है और वह जिस शैली की लिपि का ज्ञाता होता है उसीमें लिखता है. देशभेद और समय के साथ भी अक्षरों की आकृति में कुछ अंतर पड़ ही जाता है और उसी के अनुसार लिपियों के उपविभाग भी किये जा सकते हैं परंतु हम उनकी आवश्यकता नहीं समझते. t गुप्तों के समय में कई अक्षरों की आकृतियां नागरी से कुछ कुछ मिलती हुई होने लगीं, सिरों के चित्र जो पहिले बहुत छोटे थे बढ़ कर कुछ लंबे बनने लगे और स्वरों की मात्राओं के प्राचीन चिन लुप्त हो कर नये रूपों में परिणत हो गये हैं. गुप्तलिपि का ही नहीं परंतु पृ. ४२-४४ में ब्राह्मी लिपि के विभागों के जो नाम रक्खे गये हैं वे बहुधा सब ही कल्पित है और मक्षरों की ति देश याउन लिपियों से निकली हुई वर्तमान लिपियों के नामों से ही उनके नामों की कल्पना की गई है. इसी तरह उनके लिये जो समय गाना गया है पद भी अनुमानिक ही है क्योंकि कई अक्षरों के वे ही रूप अनुमान किये हुए समय से पहिले और पीछे भी मिलते हैं. राजपूताने में बहुधा लेख उत्तरी शैली के ही मिलते हैं परंतु गंगधार (झालावाड़ राज्य में ) से मिला हुआ वि. सं.४८० ई.स. ४२३) का लेख (फ्ली: १७), जो मंका है कि लिपि का है और बयाने ( भरतपुरराज्य से ) के किले ( विजयगढ़) में विष्णुवर्धन के पुंडरीक यक्ष के ग्रुप (= स्तंभ ) पर खुदे हुए लेख (फ्ली: गु. ई लेखसंख्या ५२ ) में, जो वि. सं. ४२८ ( ई. स. ३७२ ) का है. दक्षिणी शैली का कुछ मिश्रण पाया जाता है. 8. मध्यभारत में र्भ गुप्तकाल के लेख बहुधा उत्तरी शैली के ही मिलते हैं परंतु कहीं कहीं दक्षिणी शैली के भी मिल आते हैं जैसे कि दूसरे का सांवी का सेकसी गु. २) नरवर्मन का मंदसोर से मिला हुआ माल (विक्रम) सं. ४६१ का ( पॅ. ई० जि. १२, पृ. ३२०-२२ ) और कुमारगुप्त के समय का मालव ( विक्रम ) सं. ५२६ का (फ्ली; गु. ई: लेखसंख्या १८) लेख. उदयगिरि से मिला हुआ चंद्रगुप्त ( दूसरे ) के समय का एक लेख [ फ्ली, गु. ई; लेख संख्या ६ ) उत्तरी शैली की लिपि का है, परंतु वहीं से मिला हुआ उसी राजा के समय का दूसरा लेख ( फ्ली; गु. इं: लेखासंख्या ३) दक्षिणी शैली का है और वहीं से मिले हुए तीसरे लेख की ( फली : गु. ई लेखसंख्या ६९ ), जो गुप्त संवत् २०६ ( ई. स. २५-६ ) का है, लिपि उत्तरी शैली की होने पर भी उसमें दक्षिणी शैली का कुछ कुछ मिश्रण पाया जाता है. इस प्रकार एक ही स्थान के लेखों में भिन्न शैली की लिपियों का मिलना यही बतलाता है कि उनके लेखक मिन लिपियों के ज्ञाता थे न कि देशभेद ही इस अंतर का कारण था. मध्यप्रदेश में भी गुप्त के समय उत्तरी शेती की लिपि का प्रचार था परंतु कोई कोई लेख दक्षिणी शैली के भी मिलाते हैं; जैसा कि दर से मिला हुआ समुद्रगुप्त के समय का लेख ( फ्ली: गु. ई लेखसंख्या २). परंतु वहीं से मिले हुए बुधगुप्त और गोपराज के लेल उत्तरी शैली के हैं (फ्ली; गु. ई संख्या ११ और २०). Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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