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________________ प्राचीन लिपिमाला. दो अक्षरों को ही उलटा मोदना भूल कर सीधा खोद दे तो केवल वे ही अक्षर सिक्के पर उलटे मा जायेंगे. २८ 4 ऐसी गलतियां कभी कभी हो जाने के उदाहरण मिल आते हैं मातवाहन (आंध्र) वंश के राजा शातकर्णी के भिन्न प्रकार के दो मिकों पर शतकणिस (शातकर्णे) सारा लेख एरा के सि की नई उलटाया गया है'. पार्थिवन् अब्दगसिस् के एक सिक्के पर के बरोठी लेख का एक अंश उलटा आ गया है अर्थात् नागरी की नई बाई ओर से दाहिनी ओर है (र; ई. कॉ; पृ. १५). विक्रम संवत् १६४३ के बने हुए इंदोर राज्य के पैसे पर 'एक पाव आना इंदोर यह लेख उल्टा आगया है. महाक्षत्रप रंज (राजुल ) के एक सिर्फ पर खरोष्टी लेख की तरफ के ग्रीक अक्षर Y और E से बने हुए मोनोग्राम में अन्तर उलटा आगया है परंतु दूसरे सिकों पर सीधा है? ५. एक प्राचीन मुद्रा पर श्रीरमपकुल' लेग्ज़ है, जिसमें 'श्री' और 'प' ये दो अक्षर उलटें आ गये हैं। ऐसे ही पटना के ᄇ . 1 से मिली हुई एक मुद्रा पर के 'अगपलश' ( अंगपालस्य ) लेख में 'अ' उलटा आगया है : ऐसी दशा में गरण के सिर्फ पर के उलटे लेख के आधार पर यह मान लेना कि 'ब्राह्मी लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती थी किसी तरह आदरणीय नहीं हो सकता". प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. हुल्श ( Hultzsch ) ने लिखा है ' कि 'बूलर एरण के सिक्के को, जिस पर के अक्षर दाहिनी ओर से बाई ओर हैं, ब्राह्मी के सेमिटिक लिपि से निकलने का प्रमाण मानता है, इसमें मैं उससे सहमत नहीं हो सकता. यह जानी हुई बात है कि सिके पर अक्षर ठीक आने के लिये ठप्पे पर उनको उलटा ग्वोदना चाहिये; इस बात को हिन्दुस्तानी ठप्पा खोदने वाले अक्सर भूल जाते हैं.' डॉ. फ्लीट ने भी ऐसा ही मन प्रकट किया है. , ब्राह्मी लिपि के न तो अजर फिनिशियन या किसी अन्य लिपि से निकले हैं और न उसकी बाई ओर से दाहिनी ओर लिखने की प्रणाली किसी और लिपि से बदल कर बनाई गई है. यह भारतवर्ष के आयों का अपनी खोज से उत्पन्न किया हुआ मौलिक आविष्कार है. इसकी प्राचीमता और सुंदरता से चाहे इसका कर्ता ब्रह्मा देवता माना जा कर इसका नाम त्राची पड़ा, लिखा जाता है ( लिपि प ८ ) परंतु पहिले ऐसा न था ( लिपिपत्र ३२-३५). पृ. ४. प्लेट १, संख्या ६ और ११. 7. क. कॉ. श्री. २. ई. पॅ जि. २६, पू. ३३६. २. पूर नाम के प्रत्येक अंश के प्रारंभ के सांकेतिक दो या तीन वर्णों को मिला कर जो एक विलक्षण चिह्न बनाया जाता है उसे अप्रेस में मोनोग्राम एकाक्षर) कहते हैं. ४. गा: को श्री. सी. पृ. ३७, संख्या ५. i. अ. रॉ. ए. सो; ईस. १९०१, पृ. १०४ संख्या ६. 7). कः श्र. स. रिजि. १५, प्लेट ३ संख्या २. ई. स. १८६५ में डॉन मार्टिनो डी जिल्वा विक्रमसिंघे ने रॉयल परिश्राटिक सोसाइटी के जर्नल (त्रैमासिक पत्रिका) में एक पत्र प्रकाशित कर यह बतलाना चाहा था कि 'सीलोन में कई शिलालेख प्राचीन ब्राह्मी लिपि के मिले हैं, जिनमें से दी में अक्षर उलटे हैं, परंतु उनकी छापों के अभाव में उनका विवेचन नहीं किया जा सकता' ज. रॉ. ए. सो. ई.स. १८२५ पू. ६५-६८) और ई. स. १९०१ में एक लेख उसी जर्नल में फिर छपवाया जिसमें उलटा खुदा हुआ कोई शिलालेख तो प्रका शित में किया किंतु उनकी छाप शीघ्र प्राप्त करने का यत्न करने की इच्छा प्रकट की, और अशोक के गिरनार के लेख में 'प्र' के स्थान में पं 'ष' के स्थान में 'ते' श्रादि जो अशुद्धियां मिलती हैं उनपर से यह सिद्धांत निकाला कि 'ब्राह्मी लिपि का रुख बदलने में से अक्षर इस तरह लिखे गये' (ज. रॉ. ए. सो. ई. स. १६०१, पृ. ३०१-५) परंतु गिरनार के सारे लेख को भ्यानपूर्वक पढ़नेव जे को यह अवश्य मालूम हो जायगा कि उसके लिखनेवाले को संयुक्ताक्षरों का ठीक ठीक ज्ञान न था और iamrer में प्रथम आने वाले 'र्' (रेक ) तथा द्वितीय आने वाले 'र' का अन्तर तो वह समझता ही न था जिससे उसने संयुक्ताक्षरों में ऐसी ऐसी अनेक अशुद्धियां की हैं. यदि इन अशुद्धियों पर से ही यह सिद्धांत स्थिर किया जा सकता हो कि ये लिपि के उत्तर लिखे जाने के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं तो बात दूसरी है. ई. स. १३०३ में डॉ. राइस डेविल्ज़ ने विक्रमसिंघे के ऊपर लिखे हुए पत्र और लेख के हवाले से मान लिया कि ब्राह्मी लिपि उमदी भी लिखी जाती थी (डे, कु. ई. पू. ११५ ), परंतु साथ में यह भी लिख दिया कि 'अब तक उलटी लिएका कोख प्रसिद्ध नहीं हुआ.' २.२ पृ. ३३६. १. ई. ऐ. केजी अनुवाद की भूमिका, पृ. ३-४. 6. गाः कॉ. प्री. सी. पृ. ६७, सख्या ६. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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