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________________ मानीनलिपिमाला. बस इस स्टेरिमा के अंतर पर पाषाण लगे हैं, जिनसे धर्मशालाओं का तथा दूरी का पता लगता है, नये वर्ष के दिन भाषी फल (पंचांग) सुनाया जाता है', जन्मपत्र मनाने के लिये जम्मसमय लिला जाता है और न्याय 'स्मृति के अनुसार होता है.' इन दोनों लेखकों के कथन से स्पष्ट है कि ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी में यहां के लोग सर्व (पा चिथों) से कागज बनामा जानते थे, पंचांग तथा जन्मपत्र बनते थे जैसे कि अब तक चले पाते हैं और मीलों के पत्थर तक लगाये जाते थे. ये लेस्बमकता की प्राचीनता के सूचक हैं, बौद्धों के 'शील' ग्रंथ में पौद्ध साधुनों (अमणों) के लिये जिन जिन बातों का निषेध किया गया है उनमें 'क्लारिका' (पपरिका) नामक खेल भी शामिल है, जिसे * पुसा. पालक भी खेला करते थे. इस खेल में खेलने वालों को अपनी पीठ पर या भाकाश में [अंगुलि से] लिखा हुमा महर झना पड़ता था, 'बिनय संबंधी पुस्तकों में 'लेख' (लिखने की कला) की प्रशंसा की है और पौख भार्यानों के लिये सांसारिक कलानों के सीखने का निषेध होने पर भी लिखना सीखने की उनके पास माशा, यदि कोई बौद्ध साधु (प्रमण) किसी मनुष्य को प्रात्मधात की प्रशंसा में कुछ लिखे (लेखं छिन्दति) तो उसे प्रत्येक अक्षर के लिये दुमत (पुष्कृत-पाप) होगा", और गृहस्थियों के ल. एको के वास्ते लिखने का पेशा सुख से जीवन निर्वाह करने का साधन माना गया है विद्वाम् को अपना राजदूत बना कर मौर्यवंशी राजा चंद्रगुप्त के दरबार (पाटलिपुत्र) में भेजा था. वह ५ वर्ष के लगभग यहां रहा और उसने इस देश के विषय में 'इंडिका' नामक पुस्तक ई.स. पूर्व की बौथी शताब्दी के अंत के मासपास लिखी, जो नट होगा परंतु दूसरे क्षेषकों ने उससे जो जो अंश उड़त किया है बाइ उपलध है. १. एक स्टेरिमस् (Stadiuun) ६०३ फुटांच का होता है ('स्टेडिमा,' 'स्टेडिनम् ' राम्पका गुपचन है. १ . पृ. १२५-२६. . . प. ६१. ५. ई. में पू. १२६. १. मगस्थिनीज़ो मूल 'स्मृति' (धर्मशाखा) शब्द के अर्थ 'याददाश्त का प्रयोग किया है, जिसपर से मिलने पक पूरोपियन् विद्वानों में यहां पर उस समय लिले एए कानून का होना मान लिया है, परंतु कूलर लिखा है कि मॅगस्थिनीज़ का भाशय 'स्मृति' के पुस्तकों से है (ई.पू. ६). . रिलायती कागज़ो के प्रचार के पूर्व यहां पर पिथों को कूट कूट कर उनके गूद से कागज बनाने के पुराने दिंगकारखाने की जगह थे, परन्तु पिलायती कागज़ अधिक सुंदर और सस्ते होने से बंद हो गये, तो भी घोडा (मेवार में) मादि में अब तक पुराने ढंग से कागल पनते हैं. . और धर्मग्रंप 'सुसंत' (सूत्रांत) के प्रथम संरके प्रथम मण्याय में जो बुर के कपोपकथन है 'शील' अर्थात 'प्राचार के उपदेश' कहलाते हैं. उसके संग्रह का समय शे. रायम् सेविड्ज़ ने ई.स. पूर्व ४५० के पास पास बक्त लाया है (दु. १.१०७), किंतु बौर लोग 'शील' को स्वयं दुर का बखान मानते हैं. ___E. प्रमजालसुत्त, १० सामप्रफलमुत्त, ४॥ ए.पू. १०८. १. जिस वर्ष पुर का निर्माण मा उसी वर्ष (ई.स. पूर्व ४८७ के भासपास) उनके मुख्य शिष्य काश्यप की इच्छानुसार मगध के पजा प्रजातक की सहायता से राजगृह के पास की सप्तपर्ण गुफा के बड़े दालान में योका पहिला संघ एका दुभा जिसमें ५००महतराज साधु) उपस्थित थे. वहां पर उपालि. जिसको स्वयं दुखने विनय का अदितीयकाता माना था, 'विन्य' सुनाया, जो पुर का कहा दमा 'विनय' माना गया. बौद्धों के धर्मग्रंथों के तीन विभाग 'विनय, "इस' (सूच) और 'अभिधम्म (भिधर्म) हैं, जिनमें से प्रत्येक को 'पिटक' कहते हैं. प्रत्येक पिटक में काम हैं और तीनों मिलकर बिपिटिक' कहलात हैं. विनय' मै बौन साधुओं के प्राचार का विषय है. मोशनमत में 'विनय के कितने एक मंश.स. पूर्व ५०० से पहिले के हैं. १. प. १०८: मिक्लुपाचित्तिय. २.२. २. हैदुई प. १०८ Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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