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________________ भूमिका. संपादन कर सकता है. मेरे पास आकर पानेवालों में से एक विद्वान् ने तो उससे भी थोड़े समय में अच्छी तरह पढ़ना सीख लिया. मनुष्य की बुद्धि के सबसे बड़े महत्व के दो कार्य भारतीय ग्रामी लिपि और वर्तमान शैली के अंकों की कल्पना हैं. इस बीसवीं शतादी में भी हम संमार की बड़ी उन्नतिशील जातियों की लिपियों की तरफ देखते हैं तो उनमें उन्नति की गंध भी नहीं पाई जाती. कहीं तो ध्वनि मोर उसके सूचक चिहों (मदरों) में साम्य ही नहीं है जिससे एक ही चिक से एक से अधिक ध्वनियां प्रकट होती हैं और कहीं एक ही ध्वनि के लिये एक से अधिक चित्रों का व्यवहार होता है और अच। ये कोई शास्त्रीय मीनहीं. कहीं लिपि वर्णात्मक नहीं किंत चित्रात्मक ही है. ये लिपियां मनुष्य जाति के ज्ञान की प्रारंभिक दशा की निर्माण स्थिति से अब तक कुछ भी आगे नहीं बढ़ सकी परंतु भारतवर्ष की लिपि हजारों वर्षों पहिले भी इतनी उच्च कोटि को पहुंच गई थी कि उसकी उसमता की कुछ भी समामला संसार भर की कोई दूसरी लिपि अपना नहीं कर सकती. इसमें ध्वनि और लिखितवर्ण का संबंध ठीक वैसा ही है जैसा कि फोनोग्राफ की ध्वनि और उसकी चड़ियों पर के चित्रों के बीच है. इसमें प्रत्येक आर्य ध्वनि के लिये अलग अलग चित्र होने से जैसा बोला जाये वैसा ही लिखा जाता है और जैसा लिम्बा जाये वैसा ही पड़ा जाता है तथा वर्ष कम वैज्ञानिक रीति से स्थिर किया गया है. यह उसमना किसी अन्य लिपि में नहीं है. ऐसे ही प्राचीन काल में संसार भर की अंक विद्या भी प्रारंभिक दशा में थी. कहीं अदरों को ही भित्र भित्र को के लिये काम में लाते थे, तो कहीं इकाई के १ से तक के विक, एवं दहाइयों के १० से १० तक के है, और सैंकड़ा, हजार मादि के भिन्न भिन्न विथे. उन २० चित्रों से केवल एक लाख के नीचे की ही संख्या प्रकट होती थी और प्रत्येक चिक अपनी नियन संख्या ही प्रकट कर सकता था. मारतवर्ष में भी अंकों का प्राचीन क्रम यही था परंतु इस जटिज अंकका से गणिन विया में विशष उन्नति नहीं हो सकती थी जिससे यहाँवालों ने ही वर्तमान अंककम निकासा जिसमें १ से इतक के नव अंक और खाली स्थानसूचक शून्य इन दस चित्रों से अंकविया का संपूर्ण पवहार चल सकता है. भारतवर्ष से ही यह अंककम संसार भर ने सीखा और वर्तमान समय में गणित और उससे संबंध रखनेवाले अन्य शास्त्रों में जो उन्नति ई है वह इसी क्रम के कारण से ही है. इन्हीं दोनों बातों से प्राचीन कान के मारनीय भार्य लोगों की बुद्धि और विद्यासंबंधी उन्नत दया का मनुमाम होता है. इन्हीं दोनों विषयों एवं उनके समय समय के मित्र भित्र रुपांतरों के संच का यह पुस्तक है. हिंदी भाषा में इस पुस्तक के लिखे जाने के दो कारण हैं. प्रथम तो यह कि हमारे यहां के केवल संस्कत जाननेवाले बड़े बड़े पंडितों को जब कोर्ड १.०० वर्ष से अधिक प्राचीन विनालेख. दानपत्र, सिका या पुस्तक मिल जाता है तो वे जिस भाषा में वह लिखा गया हो उसके विद्वान होने पर भी उसको पढ़ नहीं सकते जिससे उसकी लिपि को तिलंगी या कनड़ी मादि कह कर टाल जाते हैं और उसका भाशय जान नहीं सकते. यह थोड़े खेद की बात नहीं है. यदि इस पुस्तक के सहारे थोडे से श्रम मे सारे भारतवर्ष की नहीं तो अपने प्रदेश की प्राचीन लिपियों का पढ़ना भी सीख जायें तो उनकी विद्वत्ता के लिये सोने के साथ सुगंधि हो जाय और हमारे यहां के प्राचीन शोध को सहा. यता भी मिले. जिन विद्यापीठों में केवल संस्कृत की पढ़ाई होती है वहां की उप श्रेणियों में यदि यह पुस्तक पढ़ाया जाये तो संस्कृत विद्वानों में जो इतिहास के ज्ञान की त्रुटि पाई जाती है उसकी कुछ पूर्ति हो जायणी, हिंदीगजाननेवाले जो विद्वान् प्राचीन शोष में अनुराग दिखाते हैं संत तो पड़े ही होते और पेवनागरी लिपि से भी भली भांति परिचित होते हैं. भले ही इस पुस्तक Ahol Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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