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________________ मार्यानलिपिमाला. की दूसरी शताब्दी से इधर का नहीं माना जा सकता. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि या के लेख में उक्त वंश के म के पास का नक्शा भंडारकर १. 'गाथासप्तति' के अंत में सातवाहन को कुंतल देश का राजा, प्रतिष्ठान (पैठण) नगर का अधीश, शतकम् ( शासकर्णि) उपासवनाला. दीपिकाएं का पुष, मलयवती का पति और हालादि उपनामघाला लिखा है। प्रो. पीटर्सन की इ.स. १५-६ तक की रिपोर्ट पृ ३४६ । शिलालेखों में आंध्र (ध्रभृत्य वंश के लिये सातवाहन नाम का प्रयोग मिलता है. नानाघाट के लेख में उक्त वंश के मूल पुरुष सिमुक को सातवाहन कहा है और उलवंश के राज्य का अंत ई म. २२५ के पास पास होना ( स्मि: अहि. ई:पृ. २९८ के पास का नक्शा) माना जाता है. ऐसी दशा में गाथासप्तशति' का समय म सग से पूर्व काही होना चाहिये. दंषद रामकृष्ण भंडारकर मे विक्रम संवत्संबंधी अपने लेख में 'गाथासप्तशति के राजा विक्रम के विषय में लिखते हुए उक्त पस्तक के रचनाकाल के संबंध में लिखा है कि 'क्या गाथासप्तशति वास्तव में उतना पुराना ग्रंथ है जितना कि माना जाता है'......वाण के हर्षचरित के प्रारंभ के १३ वे श्लोक में सातवाहन के द्वारा गीतों के कोश' के यनाये आने का उल्लेख अवश्य है परंतु इस 'कोशको हाल की सप्तशति मानने के लिये कोई "रए नहीं है जैसा कि प्रों बेबर ने अच्छी तरह बतलाया है. उसी पुस्तक में मिलनेवाले प्रमाण उसकी रचना का सबहुत पीछे का होना बतलाते हैं. यहां पर केवल दो बातों का विचार किया जाता है. एक तो उस (पुस्तक) में कृष्ण और राधिका का (REE और दूसरा मंगलवार (३।६१) का उल्लेख है. राधिका का सब से सराना उर जो मुझे मिल सका वह पंचतंत्र में है जो इ. स. की पांचवीं शताब्दीका बना हुआ है. ऐसे ही विधियों के साथ या सा- य व्यवहार में बार लिखने की रीति वीं शताब्दी से प्रचलित हुई, यद्यपि उसका सबसे पुराना उदाहरण बुधगुप्त के .y४ परण के लेख में मिलता है यदि हम गाथासप्तशति के हाल का समय छठी शताब्दी का प्रारंभ मानें तो अधिक अनुचितम होगा'(आर.जी भंडारकर कोम्मेमोरेशन वॉल्यम, पृ.८-८८) हम उक्त विद्वान् के इस मधन से सब सहमत नहीं हो सकते क्योंकि बारामट्ट सातवाहन के जिस सुभाषितरूपी उज्वलरत्नों के. कोश ( संग्रह, जामे की प्रशंसा करता है (अविनाशिनमाम्यमकरोत्सातवाहनः विशुद्धजातिभिः कोशं रत्नेरिव सुभाषितः ॥ १३) यह गाथासमशति' ही है, जिसमें सुभाषित रूपी रत्नों का ही संग्रह है. यह कोई प्रमाण नहीं कि प्रो. बबर ने उसे गाथासप्रशति नहीं माना इस लिये वह उससे भिन्न पुस्तक होना चाहिये. वेबर ने ऐसी ऐसी कई प्रमाणशून्य कल्पनाएं की है जो अब मानी नहीं जाती. प्रसिद्ध विद्वान डॉक्टर सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने भी वेबर के उक्त कथन के विरुद्ध याणमट्ट के उपर्युक्त लोक कामबंधनाल की समशसि से होना ही माना है (बंगे: जि १, भा. २, पृ.१७१. ऐसा ही डॉ०लीट ने (ज. रों. ए. सोईस १६१६, पृ.८२०) और 'प्रयंचितामणि' के कर्ता मेरुतुंग ने माना है (प्रबंधचिंतामणि, पृ. २६) पांच! शताक्षी के बने हुए पंचतंत्र' में कृष्ण और राधिका का उल्लेख होना तो उलटा यह सिद्ध करता है कि उस समय कृपया और राधिका की कथा लोगो मे भलीभांति प्रसिद्ध थी अर्थात् उक्त समय के पहिले से चली आती थी. यदि ऐसा न होता तो पंचतंत्र का कर्ता जसका उल्लेखही कैसे करतार ऐसे ही तिथियों के साथ या सामान्य व्यवहार में चार लिखने की रीति का ६ वी शताबी में प्रचलित होना बतलाना भी ठीक नहीं हो सकता, क्यों कि कच्छ राज्य के अंधो गांव से मिले हुए क्षत्रप रुद्रदामन के समय के शिक] संवत् ५२ । ई. स. १३० ) के ४ लेखा में से एक लेख में गुरुवार' लिखा है ( में द्विपंचाशे ५० २ फागणावएलस द्वितीया वी२ गुरुवास(२] सिंहलपुत्रस सोपशतस गोत्रसर स्वर्गीय प्राचार्य बलमजी हरिदत्त की तरयार की हुई उक्त लेख की छाप से) जिससे सिद्ध हैं कि ई. स. की दूसरी शताब्दी में बार लिखने की रीति परंपरागत प्रचलित थी. राधिका और बुधवार के उरलेख से ही गाथासप्तशति' का छठी शताब्दी में बनना किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता डॉ. सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने भी गाथासप्तशति के कर्ता हाल को आंध्रभृत्य वंश के राजाश्री में से एक माना है (बंब. गें; जि. १, भा. २, पृ. १७१ ) जिससे भी उसका धभृत्य ( सातवाहन) वंशियों के राजत्वकाल में अर्थात् स. की पहिखी या दूसरी शताब्दी में बनना मानना पड़ता है. केवल 'गाथासप्तशति' से.ही चंद्रगुप्त दूसरे से पूर्व के राजा विक्रम का पता लगता है इतना ही नहीं किंतु राजा सातवाहन । हाल ) के समय के महाकवि गुणाव्य रचित पैशाची। कश्मीर तरफ की प्राकृत भाषा के वृहत्कथा' नामक ग्रंथ से भी. जिसकी प्रशंसा बागाभट्ट ने अपने हर्षचरित के प्रारंभ के १७वें श्लोक ( समुद्दीपितकंदए। कृतगौरीप्रसाधना । हरलीलेव ने कम्य विस्मयाव वृहत्कथा ) में की है वह पुस्तक अब तक नहीं मिला परंतु उसके संस्कृत अनुवाद रूपी सोमदेव भट्ट के कहासरित्सागर में उजैन के राजा विकसिंह ( लंबक है. नरंग , पाटलीपुर के राजा विक्रमतुंग (लंबक ७, तरंग १) आदि विक्रम नाम के राजाओं की कई कथाएं मिलती है. इस पुस्तक को भी वेबर ने ई. स. की छठी शताब्दी का माना है परंतु डॉ. सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने उपर्युक्त सातवाहन के समय का अर्थात् ई. स. की पहिली या दूसरी शताब्दी का माना है (वंब. गें; जि. १ भा.२, पृ. १७०-७१) और काव्यमाला के विद्वान संपादक स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. दुर्गाप्रसाद धार पाहांग परब ने उसका इ. स. की पहिली शताब्दी में बनना बतलाया है इतना ही नहीं किंतु वेयर के मामे हुए उसके समय के विषय में लिखा है कि "वेयर पंडित 'हिस्टरी ऑव संस्कृत लिटरेचर' नामक पुस्तक में गुणाढ्य का ई. स. की छठी शतादी में होना बतलाता है और दशकुमारचरित के रचयिता प्राचार्य दंडी का भी ठी शताब्दी में होना स्वीकार करता है। किंतु आचार्य दंडी काव्यदर्श में 'भुलभापामयी प्राहुरद्भुतार्थी वृहत्कथाम् ' में 'माहुः पद से सहत्कथा का अपमे से बहुत Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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