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________________ १४ प्राचीन लिपिमाला के इकनों पर खुदे हुए मिलते हैं. पत्थर पर खुदे हुए लेखों को 'शिलालेख' और जिनमें राजाओं आदि का प्रमायुक्त वर्णन होता है उनको 'प्रशस्ति' कहते हैं. जिस आधार पर लेख खुदवाना होता वह यदि समान और चिकना न हो तो पहिले टोकियों से छील कर उसे समान बनाते फिर पत्थर आदि से घोटकर वह चिकना बनाया जाता था. जिस भाप का लेख लिखना होता इसकी रचना कोई कवि, विज्ञान, राजकीय अधिकारी' या अन्य पुरुष करना. फिर सुंदर चर लिखनेवाला लेखक एक एक अथवा दो दो पंक्तियाँ स्याही से पत्थर पर लिखता और उनको कारीगर (सुधार) खोदला जाता था. इस प्रकार कमरा सारा पत्थर चोदा जाता' इस प्रकार से तैयार किये जाने हुए शिक्षालेख मैंने स्वयं देखे हैं. सिलने के पूर्व पंक्तियां सीधी लाने के लिये यदि पत्थर अधिक लंबा होता तो न की पतली डोरी को गेरू में भिगो कर उससे पंक्तियों के निशान बनाने जैसे कि लकड़ी के लड्डे को चीर कर सकने निकालनेवाले खाली लोग लड़े पर बनाते हैं, और पत्थर कम लंबाई का होता तो गज या लकड़ी की पट्टी रख कर उसके सहारे टांकी आदि से लकीर का निशान बना लेते. मंदिर, बावडी आदि की भीमों में लगाये जानेवाले लेख पत्थर की छोटी बड़ी पहियों (शिक्षाओं पर खुदवाये जाकर बहुधा ताकों में, जो पहिले पना लिये जाते थे, लगाये जाते थे. ऐसे लेखों के चारों ओर पुस्तकों के पत्तों की नाई हाशिमा छोड़ा जाता था. कभी कभी खोदे जानेवाले स्थान के चारों और लकीरें खुदी हुई मिलती हैं. कभी वह स्थान पाच इंच से एक इंच या उससे भी अधिक खोद कर हाशिये से मीचा' किया हुआ मिलता है. अधिक सावधानी से खुदवाये हुए लेखों में कभी पत्थर की चटक उड़ गई तो उसमें पत्थर के रंग की मिधातु भर कर उस स्थान को समान बनाते थे और यदि अदर का कोई अंग चटक के साथ बड़ जाता तो उसको पीडा उस धातु पर खोद लेते थे. पहुचा शिलालेखों के प्रारंभ में और कभी अंत में कोई मंगल सूचक सांकेतिक चित्र शब्द या किसी देवता के प्रदानसूचक १. यह हाल साबधानी के साथ सत्कार किये हुए लेख का है कई लेख सरदरे पत्थरों पर बेपरवाही के साथ बोवे हुए भी मिलते है. १. जिन शिलालेखों में राजा की तरफ़ की किसी आशा आदि का उल्लेख होता उन्हें राजकर्मबारी ही तय्यार करते थे. २. लेखक बहुधा ब्राह्मण, कायस्थ, जैन साधु या सूत्रधार ( सिलाघर ) लोग होते थे. लेखों के हिंदुओं के हमड़े हुए होते हैं और पत्थर मानों का अनुकरण कर उभरे हुए ही लेख मेरे देखने में आये है एक तो ४. अशोक के विरमार के ले (ई.स. १३१६ ) के के चारों ओर लकीरें हैं ( . . जि. १२, पृ. २४ के पास का लेट ) 4 वसंतगढ़ (सिरोही राज्य में) से मिले हुए परमार राजा पूर्णपाल के समय के वि. सं. १०६६ (ई. स. १०४२) के लेख का, जो राजपूतानाम् आ है खुश हाशिये से करीब पाय व नीचा है और यहीं हुए (राज्य में ) के दो शिलालेखो का खुदा हुआ अंश प्रायः एक इंच नीचा है, उनमें से एक ( खंडित ) परमार राजा चामुंडराज के समय का बि. सं. १९५७ (ई.स. ११०१) का और दूसरा परमार राजा विजयराज के समय का वि. सं. १९१६ ( ई. स. १११०) का है. राजपूताना म्यूजियम (अजमेर) में अजमेर के चौहान राजा बिमहराज बीसलदेव र की तथा सोमेखर पंडितरचित 'तिमि राजन की दोहोरी हुई है. इन चारों बातु भरी हुई है और कहीं उसपर अक्षर का अंश भी हुआ है. विज्ञों में स्वस्तिक ( आ. स. स. ई. जि. ९. ६६ मा. स. . में कई जगह इ १३, १४ आदि), चक्र ( धर्मचक्र ) पर रहा हु त्रिशूल (जिरण: आ. स. वे. 'झ' का सांकेतिक चिह्न देखो. लिपिपत्र १६, २१, २३ आदि के साथ दी जि. ७. सेट ४२ सेस संख्या ५, ६, ७, १२, जि. ४, सेट ४५ लेख संख्या १०, १५ आदि), हुई मूल पंक्तियों के प्रारंभ में) तथा कई अन्य अक्षर पत्थर के भीतर जाते है परंतु मुसमानी के रीया फारसी के लेखों के अक्षर पर असर नहीं होता टोकियों से दिया जाता है कोई कोई हिंदू मु वाले लेक भी बनाने लग गये परंतु ऐसे बहुत ही कम मिलते हैं अब तक ऐसे केवल दो मन में और दूसरा बाड़ी (बलपुर राज्य में मै. ये दोनों मुसाम के समय के हैं. की १४ धर्माशाओं में से प्रत्येक के चारों ओर की दी हुई है. बि. सं. १२७३ राज्य में) से मिले हुए लेख ( जम्भजमेर मे रखा हुआ है मिलते है जिनका आशय ठीक ठीक हात नहीं हुआ ( आ. स. घे. ; जि ४, सेट ४४, भाजा का सेवा ७१ मैट ४५ कूडा १,६,१६ मेट ४६, फूड के ले २०, २२, २४, २१). - शब्दों में जिम ( ज १२. पू. ३२० के पास का सेट लिपि ७११.१२.१५ आदि के साथ ही हरे Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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