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________________ लेखनसामग्री. १४३ तीखे गोल मुख की शलाका को उनपर दवा कर अचर कुरेदते थे. फिर पत्रों पर कजल फिरा देने से प्रचर काले बन जाते थे. कम लंबाई के पत्रों के मध्य में एक, और अधिक लंबाईवालों के मध्य से कुछ अंतर पर दाहिनी और बाई ओर एक एक, छिट किया जाता था. पुस्तकों के नीचे और ऊपर उसी अंदाज़ के सूराखवाली लकड़ी की पाटियां रहती थीं. इन सूराम्वों में डोरी झाली जाने से एक माप की एक या अधिक पुस्तकें एकत्र बंध सकती थीं. पढ़ने के समय डोरी को हीला करने से प्रत्येक पत्रा दोनों ओर से प्रासानी के साथ उलटाया तथा पढ़ा जा सकता था. सुंदर सस्ते कागजों के प्रचार के साथ ताड़पत्रों का प्रचार कम होता गया और अब तो बंगाल में कोई कोई 'दुर्गापाठ लिखने में ही उन्हें काम में लेते हैं भारत के सब से दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी हिस्सों की प्रारंभिक पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिखने में या रामेश्वर, जगदीश आदि के मंदिरों में जमा करायेहए रुपयों की रसीद देने आदि में ताड़पत्र ष भी काम में आते हैं. दक्षिण की उष्ण हवा में ताड़पत्र के पुस्तक उतने अधिक समय तक रह नहीं सकते जितने कि नेपाल आदि शीत देशों में रह सकते हैं. अब तक मिले हुए स्याही से लिम्ले ताइएन के पुस्तकों में सब से पुराना एक नाटक का कुछ श्रुटित अंश है जो ई.स.की दूसरी शताब्दी के आस पास का है. मि. मॅकार्टने के काशगर से भेजे हए ताइपत्रों के टुकड़े ई. स. की चौथी शताब्दी के हैं. जापान के होरियूज़ि के मठ में रक्खे हुए 'प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र' तथा 'उष्णीषविजयधारणी' नामक बौद्ध पुस्तक', जो मध्य भारत में वहां पहुंचे थे, ई. स. की ६ठी शताब्दी के आस पास के लिखे हुए हैं. नेपाल के ताड़पत्र के पुस्तकसंग्रह में ई. स. की ७वीं शताब्दी का लिखा हुआ 'स्कंदपुराण, कैंब्रिज के संग्रह में हर्ष संवत् २५२ (ई.स.८५६) का लिखा हुभा 'परमेश्वरतंत्र और नेपाल के संग्रह में नेवार सं.२८ (ई. स. १०६-७) का लिखा हुआ' संकावतार' नामक पुस्तक है. ई. स. की ११ वीं शताब्दी और उसके पीछे के तो अनेक ताडपत्र के पुस्तक गुजरात, राजपूताना, नेपाल आदि के एवं यूरोप के को पुस्तकमंग्रहों में रक्खे हुए हैं. दक्षिणी शैली के अर्थात् लोहे की तीक्ष्ण अग्रभागवाली शलाका से दया कर यनाये हुए असरवाले पुस्तक ई स. की १५ वीं शताब्दी से पहिले के अब तक नहीं मिले जिसका कारण दक्षिण की उष्ण हवा से उनका शीघ्र मष्ट होना ही है. भूर्जपत्र ( भोजपत्र). भूर्जपत्र (भोजपत्र)-'भूजे' नामक वृच की, जो हिमालय प्रदेश में बहुतायत से होता है, भीतरी छाल है. सुलापता तथा नाममात्र के मूल्य से बहुत मिलने के कारण प्राचीन काल में वह पुस्तक, पन आदि के लिखने के काम में बहुत आता था. अलुथेफनी लिखता है कि मध्य और उत्तरी भारत के लोग 'ज' (भूर्ज) वृक्ष की छाल पर लिखते हैं, उसको 'मृर्ज' कहते हैं. वे उसके प्रायः एक गज लंबे और एक बालिश्त चौड़े पत्रे लेते हैं और उनको भिन्न भिन्न प्रकार से तय्यार करते हैं. उनको मजबूत और चिकना बनाने के लिये वे उनपर तेल लगाते हैं और [घोट कर ] चिकना करते हैं, फिर उनपर लिखते हैं.' भूर्जपत्र लंबे चौड़े निकल आते हैं जिमको काट कर लेखक अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न लंबाई चौड़ाई के पत्रे ताने और ) १ देखो, ऊपर पृ. २, टिप्पास १. १. ज.ए. सो. बंगा: जि. ६६, पृ. २१८. प्लेट ७. संख्या १, टुकड़े मे .. पं. म. (मार्यन् सीरीज): प्लेट १-४. ४. ह. पा; अंग्रेजी भूमिका, पृ. ५२, और अंत का प्लेर. . के. पा: अंग्रेजी भूमिका. प्र. ५२. १. कॅ. पा; पृ. १४०. . सा . जि. १, पृ.१७१. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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