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________________ प्राचीनलिपिमाला. भ-दू. ३ ( नानाघाट का लेख ) ; ती. ५ ( शोडास का लेख ) ; चौ. १६ : पां. २६ ( जाजलदेव का लेख ). 'भ' का यह रूप दक्षिणी शैली की नागरी लिपि में प्रचलित है. पूर्व के 'भ' के पांचवें रूप में बाईं ओर के अंश में ऊपर की तरफ़ ग्रंथि लगाने से यह बना है. महू. ५ ( शोडास का लेख ); ती. १६; पो. १८ ('म्' में). १;ती. दूसरे रूप को चलती कलम से पूरा लिखने से बना (देखो, लिपिपत्र ६ में मथुरा के लेखों के 'द' और 'स्व' में ); चौ. १६ (बुद्धगया का लेख ). - दू. १८ ती. २०; बौ. २३ ( जोधपुर का लेख ). ल - दू. ६ : ती २१ (दुर्गगण का लेख ); चौ. २० ( ओरिया का लेख ) ब-दू. ली. ५ ( मथुरा के चार जैन लेख ) चौ. २३ : प. २४. श- प. २ ( अशोक का खालसी का लेख ); तू. ६ ती. १८ चौ. १६ (उष्णीषविजयधारणी); प. २०. १३३ प-प. ३ ( घोसुंडी के लेख के 'र्ष' में ); दू. ६: ती. १८ चौ. तोरमाण के लेख से. स तू. ५ ( मथुरा के जैन लेख ) ; ती. १७ ( करंडांडा का लेख ) ; चौ. विलसद के लेल से : पां. १६ ( उष्णीषविजयधारणी ). ह-दू. ५ ( शोडास का लेख ) ; ती. ८ चौ. असद के लेख से ; पां. २५ ( उज्जैन का लेख ). ---प. दू. ७: सी. दूसरे का रूपांतर ( देखो लिपिपत्र ५० में चेोलू के लेख का 'ळ' ). - प. ७. ८ती. १६; सौ. १६ ( उष्णीष विजय धारणी ); पां. २७ (चीरवा का लेख ) ज्ञ-प. ८ दू. पहिले का रूपांतर ; ती. २७ (ओरिया का लेल ). वर्तमान नागरी लिपि के ई. छ. ओ और औ ये चार अक्षर उनके मूल अक्षरों के रूपांतर नहीं हैं. 'ई', 'इ' के ऊपर रेफ का सा चित्र लगा कर ; 'लु', लू के साथ की मात्रा जोड़ कर; 'ओ' और 'औ', 'अ' के साथ क्रमशः उक्त स्वरों की मात्राएं लगा कर बनाये जाते हैं. 'क' और 'ऐ' प्राचीन अक्षरों के रूपांतर ही हैं. '' प्राचीन 'ऋ' के स्थानापन्न हो ऐसा पाया जाता है ( देखो, लिपिपत्र १६ में दी हुई 'उष्णीषविजयधारथी' के अंत की वर्णमाला का 'ऋ' ) वर्तमान 'मों' में जो 'ओ' का रूप ॐ लिखा जाता है वह प्राचीन 'औ' का रूपांतर हे ( देखो, लिपिपन्न १८ १६, २१ और ३५ में दिया हुआ 'औ' ), परंतु उज्जैन के लेख के अंत की पूरी वर्णमाला ( लिपिपत्र २५ ) में 'ओ' का रूप वैसा ही दिया है जिससे अनुमान होता है कि ई. स. की ११ वीं शताब्दी के उत्तराई में नागरी के लेखक 'मी' के स्थान में 'ओ' के प्राचीन रूप का व्यवहार करने और 'भी' के लिये नया चिक लिखने लग गये थे. 'झ' का वर्तमान नागरी रूप किसी प्राचीन रूप से नहीं बना, नवीन कल्पित है. शारदा ( कश्मीरी ) लिपि की उत्पत्ति शारदा लिपि नागरी की बहिन होने से उसके उत्पतिक्रम में दिये हुए प्रत्येक अचर के रूपों में से कुछ ठीक वे ही हैं जो नागरी की उत्पत्ति में दिये हैं. इसलिये उन रूपों का वर्णन १. नागरी में इस प्रकार के 'ई' की कल्पना का कुछ कुछ पता ई. स. की छठी शताब्दी से लगता है. 'उम्दीपविजय धारी' के अंत की वर्णमाला में 'इ' पर बिंदी ( खिपिपत्र १२ ) और राजा भोज के 'कूर्मशतक' मे रेफ साबि मिलता है ( लिपिपत्र ५५ ). Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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