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________________ प्राचीनलिपिमाला. नये अक्षरों तथा हस्व स्वरों की मात्राभों की योजना कर मामूली पड़े हुए लोगों के लिये, जिनको शुद्धाशुद्ध की विशेष मावश्यकता नहीं रहती थी, काम चलाऊ लिपि बना दी ( देखो, ऊपर पू. ३५.३३ ). यह लिपि फारसी की नाई दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती है और आ. ई, ऊ, ऋ, ऐ और श्री स्वर तथा उनकी मात्राओं का इसमें सर्वथा अभाव है. संयुक्त व्यंजन भी बहुत कम मिलते हैं, जिनमें भी कितने एक में तो उनके घटक व्यंजनों के अलग अलग रूप स्पष्ट नहीं होते किंतु उनका एक विलक्षण ही रूप मिलता है, जिससे कितने एक संयुक्त व्यंजनों का पढ़ना अभी तक संशययुक्त ही है. इसके लेख भारतवर्ष में विशेष कर पंजाब से ही मिले हैं अन्यल बहुत कम. यह लिपि ईरानियों के राजस्वकाल के कितने एक चांदी के मोटे और भद्दे सिकों, मौर्यवंशी राजा अशोक के शहयाज़गड़ी और मान्सेरा के घटानों पर खुदे हुए लेखों, एवं शक, क्षत्रप, पार्थिमन् और कुरानवंशी राजाओं के समय के बौद्ध लेखों और माकट्रिअन् ग्रीक, शक, क्षत्रप, पार्थिअन्, कुशन, औदुंबर आदि राजवंशों के कितने एक सिकों पर या भोजपलों पर लिखे हए प्राकृत पुस्तकों में मिलती है. लिपि के शिलाओं आदि पर खुदे हुए लेखों की, जो अब तक मिले हैं, संख्या बहुत कम है. ई.स. की तीसरी शताब्दी के पास पास तक इस लिपि का कुछ न कुछ प्रचार पंजाब की मरफ बना रहा जिसके बाद यह इस देश से सदा के लिये उठ गई और इसका स्थान प्रात्मी ने ले लिया ( विशेष वृत्तान्त के लिये देखो, ऊपर पृ. ३१-३७). लिपिपत्र ६५ वा. यह लिपिपत्र मौर्यवंशी राजा अशोक के शहबाजगदी और मान्सेरा के लेखों से तय्यार किया गया है. उक्त लेखों से दिघे हुए अक्षरों में सब स्वर 'अ' के साथ स्वरों की मात्रा लगा कर ही पनाये हैं और कितने एक अक्षरों की बाई भोर भुकी हई रवड़ी लकीर के नीचे के अंत को मोड़ कर कुछ ऊपर की ओर बढ़ाया है। देखो, 'म' (तीसरा), 'ख' (दूसरा), 'ग(दूसरा), 'च (तीसरा), ' (दुसरा), 'म' (पौधा), 'प(दूसरा), 'फ' (दसरा), 'ब(तीसरा), 'र' (तीसरा), 'व' (दूसरा), और'श'(सरा). "ज' (सरे) की खड़ी लकीर के नीचे एक भाड़ी लकीर मोर जोड़ी है. 'म' (चौथे) को बाई मोर अपूर्ण वृत्त और 'म' (पांचवें) के नीचे के भाग में तिरछी लकीर अधिक लगाई है. 'र' (दूसरे) की तिरछी खड़ी लकीर के नीचे के अंत से दाहिनी ओर एक माड़ी लकीर' और लगाई है. यह लकीर संयुक्ताक्षर में दूसरे आनेवाले 'र' का धिक है परंतु उक्त लेखों में कहीं कहीं यह लकीर विना मावश्यकता के भी लगी हुई मिलती है और वर्डक से मिले हुए पीतल के पात्र पर के लेख में तो इसकी भरमार पाई जाती है जो उक्त लेखों के लेखकों का शुद्ध लिखना न जानना प्रकट करती है. इन लेखों में 'इ की मात्रा एक खड़ी या तिरछी १. खरोष्ठी लिपि के लेखो के लिये देखो ऊपर पृष्ठ ३२, टिप्पण , और पृष्ठ ३३, टिप्पण १.२. २. ऍ. जि. १, पृ. १६ के पास का प्लेट. ज.एई.स. १८९० में छपे हुए प्रसिश फ्रेंच विज्ञान सेनार्ट के नोट्स् डी पेपिनाफे इंडियने (संल्पा)नामक लेख के अंत के मान्मेरा के लेखों के २ सेट : और 'डाइरेक्टर जनरल प्रॉफ आर्किमालॉजी इन डिमाके मेजे हुए अशोक के शहबाज़गढ़ी के लेखो के फोटो से, । . जि.२, पृ.१६ के पास के सेट की पंक्ति में 'देवनं प्रियो प्रियदशि रय में 'रय के 'र' के नीचे 'र' की सूचक जो प्रादी लकीर लगी है यह बिलकुल स्पष्ट है. यहां पर के साथ दूसरा रा ही नहीं सकता. ऐसी दशा में दस लकीर को या तोर'का अंशही या निरर्थक मानना पड़ता है. अशोक के उललेखों में ऐसी ही 'र' सूचक निरर्थक लकीरें अन्यत्र जहाँ 'र' की संभावना नहीं है वहां भी लगी हुई मिलती है (जैसे कि उक्त पहिली पंक्ति में 'सनमामि' भैप'के साथ, जहां 'पर' (पा) शब्द मैं 'र'का सर्पधा प्रभाव है, आदि). ५. अब तक राजपूताना के कई महाजन लोग जिनको अक्षरों काही मान होता है और जो संयुक्ताक्षर तथा स्वरोकी माधाओं का शुर लिखना नहीं जानते, अपनी लिखावट में ऐसी माशियां करने के अतिरिक्त स्वरों की मात्राएं या तो Aho ! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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