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________________ तामिळ लिपि तामिळ भाषा में मिलते हैं परंतु उन अक्षरों के लिये स्वतंत्र चित्र नहीं हैं. 'ग' की ध्वनि 'क' से, 'ज' और 'श की 'च' मे, 'द की 'त से और 'व' की 'प'से व्यक्त की जाती है जिसके लिये विशेष नियम मिलते हैं. संयक्त व्यंजन एक दूसरे से मिला कर नहीं किंत एक सरे के पास लिखे जाते है और कई लेग्बों में हलंत और सस्वर व्यंजन का भेद नहीं मिलता, तो भी कितने एक लेखों में संयुक्त व्यंजनों में से पहिले के ऊपर बिंदी, वक्र या तिरछी रेखा लगा कर हलंत को स्पष्ट कर जमलाया है. अनुस्वार का काम अनुनासिक वर्षों से ही लिया जाता है इस लिपि में पंजन वर्ण केवल १८ ही है जिनमें से चार (ळ,ळ,र और ण) को छोड़ देवेनो संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होनेवाले व्यंजनों में से तो केबल १४ ही रह जाने हैं. ऐसी दशा में संस्कृत शब्द इसमें लिखे नहीं जा सकते, इसलिये जब उनके लिखने की आवश्यकता होती है नब वे ग्रंथलिपि में ही लिखे जाते हैं. इसलिपि के अधिकतर अक्षर ग्रंथ लिपि में मिलते हुए ही हैं और ई, क. और र आदि अक्षर उत्सरी ग्रामी से लिये हों ऐसा प्रतीत होता है; क्योंकि उनकी बड़ी लकीरें सीधी ही है. नीचे के अंत से याई ओर मुड कर ऊपर को बड़ी हुई नहीं है, अन्य लिपियों की नाई इसमें भी समय के साथ परिवर्तन होते होते १० वीं शताब्दी के आस पास कितने एक और १४ वीं शताब्दी के पास पास अधिकतर अक्षर वर्तमान तामिळ से मिलने जुलते हो गये. फिर धोडासा और परिवर्तन होकर वर्तमान तामिळ लिपि बनी. लिपिपत्र से ५६ तक के प्रत्येक पत्र में पाठकों के अभ्यास के लिये मूल शिलालेखों या दानपत्रों से पंक्तियां दी हैं परंतु लिपिपत्र ३० से १४ तक के पांच लिपिपत्रों में वे नहीं दी गई, जिसका कारण यही है कि संस्कृतज्ञ लोग उनका एक भी शब्द समझ नहीं सकते उनको केवल वे ही लोग समझते हैं जिनकी मातृभाषा नामिक है या जिन्होंने उक्त भाषा का अध्ययन किया है तो भी बहुधा प्रत्येक शताब्दी के लेवादि से उनकी विस्तृत वर्णमालागं बना दी हैं जिनसे नामिळ जाननेवालों को उस लिपि के प्राचीन लेग्नादि पक्षने में सहायता मिल सकेगी. लिपिपत्र १० वां यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा परमेश्वरवर्मन के करम के दानपत्र तथा उसी वंश के राजा नंदिवर्मन् के कशाकूड़ि और उदयेंदिरम्' के दानपत्रों के अंत के तामिळ अंशों से तय्यार किया गया है. करम के दानपख के अचरों में से अ, आ, इ, उ, श्रो, च, ञ, ए, न, न, प, य और व (पहिला) ग्रंथ लिपि के उक्त अत्तरों की शैली के ही है. 'अ' और 'जा' में इतना ही अंतर है कि उन की खड़ी लकीरों को ऊपर की तरफ दोहराया नहीं है. इस अंतर को छोड़कर इस ताम्रपत्र के 'अ' और लिपिपत्र ५२ में दिये हुए मामल्लपुरम् के लेखों के 'अ' (इसर) में बहुम कुछ ममानता है. कट, र और व (दुसरा) उसरी शैली की ब्राह्मी लिपि से मिलने हुए हैं. कशाकडि के दानपत्र का 'अकरम के दानपत्र के 'अ' की ग्रंथि को लंबा करने से बना है. उदयदिरम के दानपत्र में हलंत और सस्वर व्यंजन में कोई भेद नहीं है. लिपिपत्रक यां यह लिपिपत्र पल्लवतिलकवंशी राजा इंतिवर्मन् के समय के निरुवेलर के लेख ', राष्ट्रकट १. हुसा . ई. जि. ३. भाग ३, सेट १२, पंक्ति ५७-८८ से. ..हु सा. जि. ३, मागवलेष्ट १४-५, पंक्ति १०५-१३३ से. ६ .५: जि.८, पृ. २७७ के पास के लेट की पति १०५-१० से, ४. प.ई: शि. ११, पृ. १५७ के पास के प्लेट से. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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