SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ : गाथा सहस्री | न व किंचि अणुनायं, पडिसिद्धं वादि जिणवरिंदेहिं । तित्थगराणं आणा, कज्जे सवेण होअवं ॥ ५१० ।। [ श्रीपञ्चवस्तुकसूत्रे २५१ पत्रे ॥ ] जो हुन उ असमत्थो १, बालो २ वुड्डो व ३ रोगिओ वावि । सो आवस्तयजुत्तो, अच्छिज्जा निज्जरापेही ॥ ५११ ॥ । सम्मत्तंमि उ लद्धे, पलिअपुहुत्तेण सावगो हुजा [होइ ] । चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होई ॥। ५१२ ॥ [पंचवस्तुकसूत्रे २५८-२७५ पत्रे प्रवचनसारोद्धारेऽपि ॥ ] जे दंसणवावना, लिंगम्गहणं करिंति सामण्णे । तेर्सि पि अ उववाओ, उक्कोसो जाव गेविज्जे ॥५१३ ॥ [पञ्चवस्तुकसूत्रे २८० पत्रे ॥ ] afga भुंजइ १ छक्कायपमद्दणो २ घरं कुणइ ३ । पश्चक्खं च जलाए, जो पियइ ४ कहण्णु सो साहू || ५१४ ॥ [ पञ्चवस्तुकसूत्रे १२०२ गाथा २८६ पत्रे ॥ ] सुखइ य वयररिसिणा, कारवर्णपि हु अणुट्टिअमिमरस । वायगगंथेसु तहा, एअगया देसणा चैव ॥ ५१५ ॥ [ वस्तुकसूत्रे गाथा १२२७२८७ पत्रे ।। ] अगुणविप्पमुको, जो देइ गणं पवत्तिणिपयं वा । जोऽवि पढिच्छर नवरं, सो पावइ आणमाईणि ॥ ५१६ ॥ वूढो गणहरसदो, गोअमपमुद्देहिं पुरिससीहेहिं । जो तं ठवइ अपत्ते, जाणंतो सो महापावो ॥ ५१७ ॥ कालोचिअगुणरहिओ, जो अ ठवावेइ तह निविद्वेपि । जो अणुपालइ सम्मं, विसुद्धभावो ससती ॥ ५९८ ॥ एव पवत्तिणिसदो, जो बूढो अज्जचंदणाईहिं । जो तं ठबइ अपत्ते, जाणतो सो महापावो ॥ ५१९ ॥ । [ पञ्चवस्तुकसूत्रे गा० १३१८ तः गा० १३२१२९० पत्रे ॥ ] आवरिस १ णिसीहि २ मिच्छा ३, पुच्छण ४ मुबसंपयंमि गिहिएस ५ | अण्णा सामायारी, न होइ से सेसिआ पंच ॥ ५२० || आवस्सिअं १ निसीहिअ २ मोतुं उवसंपयं च गिहिए ३ | सेसा सामायारी, न होइ जिणकप्पिए सन्त ।। ५२१ ॥ [पत्र० गा० १४२३-१४२४२९४ पत्रे ॥ ] आयारवत्थु तइअं, जहण्णयं होइ नवमपुवस्स । तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिण्णाई ॥ ५२२ ॥ पैढमिलयसंघयणा, घिईऍ पुण वज्जकुडुसामाणा । परिवज्र्जति इमं खलु कप्पं सेसाओ ण उ कयाइ ।। ५२३ ॥ [पञ्चवस्तुकसूत्रे गाथा १४२९ - १४३० २९४ पत्रे ॥ ] १- नैव किञ्चिदनुज्ञातम् एकान्तेन प्रतिषिद्धं वापि जिनवरेन्द्रैर्भगवद्भिः किन्तु तीर्थङ्कराणामा ज्ञेयम् यदुत कार्ये सत्येन भवितव्यं न मातृस्थानतो यत्किंचिदवलम्बनीयमिति गाथार्थः ॥ ५१० ॥ २- संहननद्वारमाश्रित्याह - 'पढ०' प्रथमेल्लकसंहननाः= ऋषभनाराचसंहनना इत्यर्थः । धृत्या पुनर्वज्रकुड्यसमानाः प्रधानवृत्तय इति भावः, प्रतिपद्यन्ते एनं खलु कल्पमधिकृतं जिनकल्पं, शेषा न तु कदाचित्तदन्य संहनिन इति गाथार्थः ॥ ५२३ ॥ पचवस्तुकवृत्ती | "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009671
Book TitleGathasahastri
Original Sutra AuthorSamaysundar
Author
PublisherZaveri Mulchand Hirachad Bhagat Mumbai
Publication Year1940
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy