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________________ LD सामायिक का फल क्या है? उत्तराध्यययन में शिष्य न जिज्ञासा की "समाइएणं भंते! जीवे किं जणयह?" भंते! सामायिक से जीव को क्या मिलता है? "सामाइएणं सावजजोगविरइ जणयह।" सामायिक से सावध योग की विरति होती है। सामायिक एक सुदृढ़ आलम्बन है, जिससे हम काफी बुराइयों से बच सकते हैं। सामायिक में राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से विरति की साधना से समता की साधना होती है। १) सामायिक में समता की साधना और शुद्धता का अनुभव। २) तनाव मुक्ति होती है, चित्त शांत होता है। ३) एकाग्रता बढ़ती है, इससे जीवन अधिक सुव्यवस्थित और क्रियाशील होता है। सावध योग से निवृत्त होने से कर्म रुकते हैं। शुभ भावों के ध्यान से पापों की निर्जरा होती है तथा पुण्य का बन्ध होता है। पुण्य बन्ध सामायिक का उद्देश्य नहीं, परन्तु निर्जरा के साथ प्राप्त होने वाला अनुवांशिक फल है। ६) सामायिक में कर्मों का बन्ध रुकता है, उसके साथ सुखी व स्वस्थ जीवन का मंत्र भी प्राप्त होता है। ७) सामायिक की साधना बाह्य मुक्ति की है, इससे मानसिक संतुलन सधता है। ८) सामायिक उर्द्धवारोहण का सोपान है।सामायिक के द्वारा ऊर्जा का संचार होता है। ९) पवित्रता की साधना है सामायिक।जिसमें बंधनमुक्ति की आराधना है। १०) स्व को जानने पहचानने की साधना है सामायिक। ११) संतुलित व्यक्तित्व का विकास सामायिक में होता है। १२) सामायिक अन्तर्मुखी चेतना का निर्माण करती है। १३) सामायिक मानसिक प्रसन्नता का अपूर्व साधन है। अनेक समस्याओं का समाधान - सामायिक आज की अनेक समस्याएं असंतुलन के कारण पैदा होती है। सामायिक से संतुलित जीवन जीने की कला आती है, अनेक समस्या का समाधान मिलता है। हर समस्या रूपी ताले की समाधान रूपी चाबी है सामायिक। सामायिक केवल क्रियाकांड नहीं। गुरुदेव तुलसी के अभिनव उपक्रम देकर नये प्रयोग द्वारा सामायिक का सही और सच्चा रुप हमें अवगत कराया है। घर-घर में, समाज में हम देखते हैं, हर जगह कलह, दोषारोपण, चुगली निन्दा और मिथ्या दृष्टिकोण से, सारी समस्याएं पैदा होती है जिससे मानसिक और सामुदायिक अशांति पैदा होती है। इन विघ्नों का निवारण है-सामायिक की सही अर्थ से साधना। हिंसा, असत्य और संग्रह प्रवृत्ति ने आज सारा समाज अक्रांत है, भ्रथचार और आतंकवाद इसी से बढ़ रहा है। इनसे मुक्त होने का राजमार्ग है सामायिक। सुख-दुःख क्या है ? आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका मर्म कितनी सुंदरता से व्यक्त किया है। वे कहते हैं, ''हम आज के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखें या महावीर के दर्शन के परिपेक्ष्य में देखें, हमें यह ज्ञात होगा कि, हमारा सारा जीवन प्रकम्पनों का जीवन है। बाह्य जगत में प्रकम्पन है, वाइब्रेशन्स और भीतरी जगत में भी प्रकम्पनों का जीवन।प्रकम्पन ही वास्तव में सुख-दुःख पैदा करते हैं। हमारी हर प्रवृत्ति प्रक्रम्पन की प्रवृत्ति है। सुख कब होता है? केवल वस्तु से सुखदुःख नहीं होता है। वस्तु और प्रकम्पन का योग होता है, तभी सुख-दुःख का अनुभव होता है। प्रकम्पन पैदा हुआ और अनुभव हुआ।" __सामायिक का अर्थ है प्रकम्पनों को समाप्त करना। प्रकम्पनों को बन्द करना, उत्पन्न न होने देना, यह है समभाव। इसे 'संवर' भी कहा जा सकता है। निर्जरा प्रकम्पन है, दूसरी क्रिया संवर प्रकम्पनों को बंद करना। सामायिक संवर की प्रक्रिया है। मन में समभाव आयेगा, प्रकम्पन बन्द हो जाते हैं। जिसने समता को साध लिया, वह अल्प साधनों का जीवन जीते हुए भी प्रसन्न और आनंद से जीता है। समलायाः प्रतिष्ठायां, सुखमायाति सर्वतः। तस्मात् सुखस्य सम्पाप्त्य, साम्यं सेव्यं सदा नरेः ।।। बने अशा समता प्रतिरिवत होने पर सब ओर से सुख्ख आता है। इसलिए सुरळ-पाति के लिए मनुष्यों को सदा समता का सेवन कळता चाहिए।
SR No.009660
Book TitleBane Arham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlka Sankhla
PublisherDipchand Sankhla
Publication Year2010
Total Pages49
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size57 MB
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