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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ३] स्याद्वादमञ्जरी अथ ये कुतीर्थ्याः कुशास्त्रवासनावासितस्वान्ततया त्रिभुवनस्वामिनं स्वामित्वेन न प्रतिपन्नाः, तानपि तत्त्वविचारणां प्रति शिक्षयन्नाह गुणेष्वसूयां दधतः परेऽमी मा शिश्रियनाम भवन्तमीशम् । तथापि संमील्य विलोचनानि विचारयन्तां नयनत्म सत्यम् ॥३॥ अमी इति--"अदसस्तु विप्रकृष्टे” इति वचनात् तत्त्वातत्त्वविमर्शबाह्यतया दूरीकरणाहत्वाद् विप्रकृष्टाः, परे--कुतीर्थिकाः, भवन्तं त्वाम् , अनन्यसामान्यसकलगुणनिलयमपि; मा ईशं शिश्रियन्-मा स्वामित्वेन प्रतिपद्यन्ताम् । यतो गुणेष्वसूयां दधतः-गुणेषु दोषाविष्करणं ह्यसूया। यो हि यत्र मत्सरी भवति स तदाश्रयं नानुरुध्यते, यथा माधुर्यमत्सरी करभः पुण्ड्रेक्षुकाण्डम् । गुणाश्रयश्च भवान् । एवं परतीथिकानां भगवदाज्ञाप्रतिपत्तिं प्रतिषिध्य स्तुतिकारो माध्यस्थमिवास्थाय, तान्प्रति हितशिक्षामुत्तरार्धेनोपदिशति । तथापि त्वदाज्ञाप्रतिपत्तेरभावेऽपि, लोचनानि नेत्राणि, संमील्य-मिलितपुटीकृत्य, सत्यं-युक्तियुक्तं, नयवर्त्मन्यायमार्ग, विचारयन्तां-विमर्शविषयीकुर्वन्तु ।। अत्र च विचारयन्तामित्यात्मनेपदेन फलवत्कर्तृविषयेणैवं ज्ञापयत्याचार्यो यदवितथनयपथविचारणया तेषामेव फलं, वयं केवलमुपदेष्टारः । किं तत्फलम् ? इति चेत् , प्रेक्षावत्तेति ब्रूमः । संमील्य विलोचनानीति च वदतः प्रायस्तत्त्वविचारणमेकाग्रताहेतुनयननिमीलनपूर्वक लोके प्रसिद्धमित्यभिप्रायः। अथवा अयमुपदेशस्तेभ्योऽरोचमान एवाचार्येण वितीर्यते ततोऽस्वदमानोऽप्ययं कटुकौषधपानन्यायेनायतिसुखत्वाद् भवद्भिर्ने। निमील्य पेय एवेत्याकूतम् ।। मिथ्याशास्त्रोंकी वासनासे दूषित जो कुतीर्थिक तीन लोकके स्वामी जिनभगवानको स्वामी नहीं मानते, उन्हें उपदेश देनेके लिए कहते हैं इलोकार्थ-हे नाथ, यद्यपि आपके गुणोंमें ईर्ष्या रखनेवाले तीथिक आपको स्वामी नहीं मानते, परन्तु ये लोग आपके सत्य न्याय मार्गका जरा नेत्र बन्द करके विचार तो करें। व्याख्यार्थ-'अमी परे भवन्तं मां ईशं शिश्रियन्, यतः गुणेषु असूयां दधतः' तत्त्व और अतत्त्वका विचार न करनेवाले दूरस्थ परमतावलम्बी असाधारण गुणोंके समूह ऐसे आपको ईश्वर नहीं मानते, क्योंकि वे आपके गुणोंमें ईर्ष्या करते हैं। गुणोंके रहते हुए भी दोषान्वेषणको असूया ( ईर्ष्या ) कहते हैं। जो जिन गुणोंमें ईर्ष्या करता है, वह उन गुणोंको गुणरूपसे नहीं स्वीकार करता। जैसे माधुर्य रससे ईर्ष्या करनेवाला ऊँट पौण्डेको नहीं चाहता। परन्तु गुण आपमें मौजूद हैं। इस प्रकार भगवान्की आज्ञाको स्वीकारोक्तिका प्रतिषेध करनेवाले तीथिकोंके प्रति उदासीन भाव रखते हुए आचार्य उपदेश करते हैं। तथापि'-आपकी आज्ञाको न मानकर भी, तैर्थिक लोग नेत्र बन्द करके आपके युक्तियुक्त न्यायमार्गका जरा विचार तो करें। यहाँ 'विचारयन्ता' आत्मनेपदका प्रयोग किया गया है, इसलिए क्रियाका फल कर्ताको ही मिलना चाहिए । अर्थात् सच्चे न्यायमार्गका विचार करनेसे तैर्थिक लोगोंको ही फल मिलेगा क्योंकि हम तो केवल उपदेश देनेवाले हैं। वह फल कौन-सा है ? प्रेक्षावान होना ही उस फलको सार्थकता है। यहां किसी तत्त्वका विचार करते समय एकाग्रता प्राप्त करनेके लिए नेत्रोंको बन्द कर विचार करनेकी लौकिक विधिका सूचन किया गया है। अथवा उपदेशके रुचिकर नहीं होनेपर भी आचार्य इसका उपदेश देते हैं। अतएव 'कटुक औषध-पान' न्यायसे इस उपदेशके कट होनेपर भी यह उपदेश मागामी कालमें सुखकर होगा, इसलिए इस उपदेशका नेत्र निमीलित करके पान करना चाहिए। १. इदमस्तु संनिकृष्टे समीपतरवति चैतदो रूपम् । अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥१॥ इति सम्पूर्णः श्लोकः।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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