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________________ संतापी थे । रहन-सहन पहरवेश सादा रखते थे। धनको तो वे 'उच्च प्रकारके कंकर'१ मात्र समझते थे। एक आरव व्यापारी अपने छोटे भाईके साथ वम्बईमें मोतियोंकी आढ़तका काम करता था। एक दिन छोटे भाईने सोचा कि 'मैं भी अपने बड़े भाईकी तरह मोतीका व्यापार करूं। वह परदेशसे आया हुआ माल लेकर बाजारमें गया। वहाँ जाने पर एक दलाल उसे श्रीमद्जीकी दुकानपर लेकर पहुंचा। श्रीमद्जीने माल अच्छी तरह परखकर देखा और उसके कहे अनुसार रकम चुकाकर ज्यौंका त्यों माल एक ओर उठाकर रख दिया। उधर घर पहुंचकर बड़े भाईके आनेपर छोटे भाईने व्यापारकी बात कह सुनाई। अब जिस व्यापारीका वह माल था उसका पत्र इस आरव व्यापारीके पास उसी दिन आया था कि अमुक भावसे नीचे माल मत वेचना। जो भाव उसने लिखा था वह चालू बाजार-भावसे बहुत ही ऊँचा था। अब यह व्यापारी तो घबरा गया क्योंकि इसे इस सौदेमें बहुत अधिक नुकसान था। वह क्रोधमें आकर बोल उठा-'अरे! तूने यह क्या किया? मुझे तो दिवाला ही निकालना पड़ेगा !' आरब-व्यापारी हांफता हुआ श्रीमद्जीके पास दौड़ा हुआ आया और उस व्यापारीका पत्र पढ़वाकर कहा-'साहब, मुझ पर दया करो, वरना मैं गरीव आदमी बरवाद हो जाऊँगा।' श्रीमद्जीने एक ओर ज्यों का त्यों बंधा हुआ माल दिखाकर कहा-'भाई, तुम्हारा माल यह रवखा है। तुम खुशीसे ले जाओ।' यौं कहकर उस व्यापारीका माल उसे दे दिया और अपने पैसे ले लिये । मानो कोई सौदा किया ही नहीं था, ऐसा सोचकर हजारोंके लाभकी भी कोई परवाह नहीं की। आरब-व्यापारी उनका उपकार मानता हुआ अपने घर चला गया । यह आरव व्यापारी श्रीमद्को खुदाके पैगम्बरके समान मानने लगा। व्यापारिक नियमानुसार सौदा निश्चित हो चुकने पर वह व्यापारी माल वापिस लेनेका अधिकारी नहीं था, परन्तु श्रीमद्जीका हृदय यह नहीं चाहता था कि किसीको उनके द्वारा हानि हो। सचमुच महात्माओंका जीवन उनकी कृतिमें व्यक्त होता ही है। इसीप्रकारका एक दूसरा प्रसंग उनके करुणामय और निस्पृही जीवनका ज्वलंत उदाहरण है : एक बार एक व्यापारीके साथ श्रीमद्जीने हीरोंका सौदा किया। इसमें ऐसा तय हुआ कि अमुक समयमें निश्चित किये हुये भावसे वह व्यापारी श्रीमद्को अमुक हीरे दे। इस विषयकी चिट्ठी भी व्यापारीने लिख दी थी। परन्तु हुआ ऐसा कि मुद्दतके समय उन हीरोंकी कीमत बहुत अधिक बढ़ गई। यदि व्यापारी चिट्ठीके अनुसार श्रीमद्को हीरे दे, तो उस बेचारेको बड़ा भारी नुकसान सहन करना पड़े; अपनी सभी सम्पत्ति बेच देनी पड़े ! अब क्या हो ? इधर जिस समय श्रीमद्जीको हीरोंका वाजार-भाव मालूम हुआ, उस समय वे शीघ्र ही उस व्यापारीकी दुकानपर जा पहुँचे । श्रीमद्जीको अपनी दुकानपर आये देखकर व्यापारी घबराहटमें पड़ गया। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला-'रायचंदभाई, हम लोगोंके बीच हुए सौदेके सम्वन्धमें मैं खूब ही चिन्तामें पड़ गया हूँ। मेरा जो कुछ होना हो, वह भले हो, परन्तु आप विश्वास रखना कि मैं आपको आजके बाजार-भावसे सौदा चुका दूँगा। आप जरा भी चिन्ता न करें।' यह सुनकर राजचन्द्रजी करुणाभरी आवाजमें बोले : "वाह ! भाई, वाह ! मैं चिन्ता क्यों न करूं? तुमको सौदेको चिन्ता होती हो तो मुझे चिन्ता क्यों न होनी चाहिये ? परन्तु हम दोनोंकी चिन्ताका मूल कारण यह चिट्ठी ही है न ? यदि इसको ही फाड़कर फेंक दें तो हम दोनोंकी चिन्ता मिट जायगी।" यौं कहकर श्रीमद् राजचन्द्रने सहजभावसे वह दस्तावेज फाड़ डाला। तत्पश्चात् श्रीमद्जी बोले : "भाई, इस चिट्ठीके कारण तुम्हारे हाथपाँव बंधे हुए थे । वाजारभाव बढ़ जानेसे तुमसे मेरे साठ सत्तर हजार १. 'ऊँची जातना कांकरा'
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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