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________________ ३५२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां प्रतिसंचर व्युत्क्रमेणव लीयन्ते तन्मात्रे भूतपंचकम् । तन्मात्राणोन्द्रियाणि अहंकारे विलीयते । अहंकारोऽथ बुद्धौ तु बुद्धिरव्यक्तसंज्ञके । अव्यक्तं न क्वचिल्लीनं प्रतिसंचर इति स्मृतः । श्लोक २० पृ० पं० क्रियावादी-अक्रियावादी। क्रियावादी जीवोंके अपने अपने कर्मों के अनुसार फल मिलनेके सिद्धान्तको मानते हैं । अक्रियावादियोंका सिद्धांत इस सिद्धांतसे बिलकुल उल्टा है । जैन और बौद्ध आगम ग्रंथोंमें पकुधकात्यायन और मक्खलिगोशालको अक्रियावादो कहकर उल्लेख किया गया है। निगंठ नातपुत्त बुद्धको क्रियावाद और अक्रियावाद दोनों सिद्धान्तोंके माननेवाला कहते हैं। प्रोफेसर बेनीमाधव बरुआ आदि विद्वानोंका मत है कि जैन धर्मका मौलिक नाम किरियावाद ( क्रियावाद ) था। क्रियावादी महावीर अक्रियावादी और अज्ञानवादियोंका विरोध करते थे, पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, निर्जरा-मोक्षको स्वीकार करते थे, और पुरुषार्थको प्रधान मानते थे। जैन ग्रंथोंमें परमतवादियोंके ३६३ मतोंमें क्रियावादी और अक्रियावादियोंके मतोंको गिनाया गया है। क्रियावादी आत्माको मानते हैं। इनके मतमें दुःख स्वयंकृत है, अन्यकृत नहीं। इनके कौत्कल, कांडविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांछयिक, रोमस, हारित, मुंड और अश्वलायन आदि १८० भेद हैं । अक्रियावादी प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्तिके पश्चात् ही पदार्थका नाश मानते हैं। अक्रियावादी आत्माके अस्तित्वको नहीं मानते, और अपने माने हुए तत्त्वोंका निश्चित रूपसे प्ररूपण नहीं कर सकते। राजवातिककारने अक्रियावादियोंके मरीच, कुमार, कपिल, उलूक, गार्य, व्याघ्रभूति, वाद्धलि, मौद्गलायन, माठर प्रभृति ४० भेद माने हैं। philosophy भाग ३ अ. २१, प्रो. होर्नेल-Encyclopaedia of Religion and Ethics जि० १० २२९ । आजीविकोंकी गणना पांच प्रकारके श्रमणोंमें की गई है। विशेषके लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्यमें भारतीय समाज, पृ. १२-१७, ४१९-२१ तेव्हां नातपुत्त म्हणाला, 'तूं क्रियावादी असून अक्रियावादी अशा श्रमण गौतमाला भेटण्याची कां इच्छा करितोस?' तरीहि सिंह गेलाच. तेव्हां बुद्धाने त्यास आपणांस क्रियावादी व अक्रियावादी ही दोन्हीं विशेषणे कशी लागू पडतील हे अनेक प्रकारांनी सांगितले (महावग्ग ६-३१ अंगत्तर ८-१२) देखिये राजवाडेका दीघनिकाय भाग १ मराठी भाषांतर पृ० १००। २. देखिये Pre-Buddhist Indian Philosophy.. ३. तथा देखिये, जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्यमें भारतीय समाज, पृ० ४२१-२२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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