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________________ ३३४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां षडदर्शनसमच्चयको टीकामें सांख्यमतके साधुओंके आचारका निम्न प्रकारसे वर्णन किया वै-"सांख्य मतके अनुयायो साध त्रिदंडी अथवा एकदंडी होते हैं, ये कौपीन धारण करते हैं, गेरुए रंगके वस्त्र पहिनते हैं. बहतसे चोटी रखते है, बहुतसे जटा बढ़ाते हैं, और बहुतसे छुरेसे मुंडन कराते हैं । ये मृगचर्मका आसन रखते हैं, ब्राह्मणोंके घर आहार लेते हैं, पांच ग्रास मात्र भोजन करते हैं, और बारह अक्षरोंकी जाप करते हैं। इनके भक्त नमस्कार करते समय 'ओं नमो नारायणाय' कहते है, और साधु केवल 'नारायणाय नमः' बोलते हैं। सांख्य परिव्राजक जीवोंकी रक्षाके लिए लकड़ीको मुखवस्त्रिका ( बीटा) रखते है । ये जीवोंकी दया पालने के लिये स्वयं जल छाननेका वस्त्र रखते हैं और अपने भक्तोंको पानी छानने के लिये छत्तीस अंगुल लंबा और बीस अंगुल चौड़ा मजबूत बस्त्र रखनेका उपदेश देते हैं। ये मीठे पानीमें खारा पानी मिलानेसे जीवोंकी हिंसा मानते है, और जलकी एक बूंदमें अनंत जीवोंका अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इनके आचार्योंके साथ 'चैतन्य' शल्द लगाया जाता है।" सांख्य कर्मकाण्डको, यज्ञ-यागको और वेदको नहीं मानते । ये अध्यात्मवादी होते हैं. हिंसाका विरोध करते हैं और वेद, पुराण, महाभारत, मनुस्मति आदिको अपेक्षा सांख्य तत्त्वज्ञानको श्रेष्ठ समझते हैं । इन लोगोंका मत है कि यथेष्ट भोगोंका सेवन करनेपर तथा किसी भी आश्रममें रहनेपर भी यदि कपिलके पच्चीस तत्त्वोंका ज्ञान हो गया है, यदि सांख्य मतमें भक्ति हो गई है तो शिखाधारो, मुण्डी अथवा जटाधारोको भी मुक्ति हो सकती है । सांख्योंके मतमें पच्चीस तत्त्व, तथा १. य एष आनुअविकः श्रौतोऽग्निहोत्रादिकः स्वर्गसाधनतया तापत्रयप्रतीकारहेतुरुक्तः सोऽपि दृष्टवत् अनेकांतिकः प्रतीकारः। तथाहि 'मध्यमपिडं पुत्रकामा पत्नी प्राश्नीयात् आधत्त पितरो गर्भम्' इति मंत्रेण । तदेवं वेदवचसा. बहन पिण्डान् परःशतानश्नाति यावदेकोऽपि पुत्रो न जायते। तथा पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतम्' इति श्रुतावास्ते। परं गर्भस्थो जातमात्रो बालो युवापि कुमारो म्रियते। किंचान्यत्-स श्रौतो हेतुः अविशुद्धः पशुहिंसात्मकत्वात् । क्षययुक्तः पुनः पातात् । अतिशययुक्तः तत्रापि स्वामिभृत्यभावश्रवणात् । उक्तं च षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि। अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः॥ पशुवधोऽग्निष्टोमे मानुषवधः गोसवव्यवस् था सौत्रामण्यां सुरापानं रण्डया सह स्वेच्छालापश्च ऋत्विजम् । कल्पसूत्रेऽन्यदपि आकृत्यं भूरि कर्तव्यतयोपदिश्यते । 'ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत क्षत्राय राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे तस्करं नारकाय वीरहम्' इत्यादिश्रवणात् । किञ्च यथा पंकेन पंकांभः सुरया वा सुराकृतम् । भूतहत्यां तथैवेमां न यज्ञैर्माष्टुमर्हति ॥ न हि हस्तावसृग्दग्धौ रुधिरेणैव शुद्धयतः । 'तद्यथाऽस्मिन् लोके मनुष्याः पशूनश्नति तथाभिभुञ्जत एवममुग्मिन् लोके पशव मनुष्यानश्नंति' इतिश्रुतिशतश्रवणात् । अन्यच्च वृक्षान् छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ इत्यविशुद्धि सर्बथा श्रौतो दुःखत्रयप्रतीकारहेतुः । सांख्यकारिका २ माठरभाष्य । २. पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः। शिखी मुण्डी जटी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ पंचशिख । भावागणेश-तत्त्वयाथार्थ्यदीपन ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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