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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) ३१९ तो है परन्तु इसे 'अस्ति' और 'नास्ति' दोनो नहीं कह सकते। यह मत वात्सीपुत्रीय बौद्धों का है। (४) आत्मा है । या नहीं, यह कहना असंभव है। इन चारों मान्यताओंका स्पष्टीकरण : (१) आत्या पात्र म्कंधोंसे भिन्न नहीं है : मिलिन्द-मन्ते ! आपका क्या नाम है ? नागरेन-महाराज! नायसेन। परन्तु यह व्यवहारमात्र है, कारण कि पुद्गल२ (आत्मा) की उपलब्धि नहीं होती। मिलिन्द-यदि आत्मा कोई वस्तु नही है तो आपको कौन पिंडपात ( भिक्षा) देता है, कौन उस भिक्षाका सेवन करता है, कौन शीलकी रक्षा करता है, और कौन भावनाओंका चिन्तन करनेवाला है ? तथा फिर तो अच्छे, बुरे कर्मोका कोई कर्ता और भोक्ता भी न मानना चाहिये, आदि । नागसेन-मैं यह नहीं कहता। मिलिन्द-क्या रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञानसे मिलकर नागसेन बने है ? नागसेन-नहीं। मिलिन्द-बयां पांच स्कंधोंके अतिरिक्त कोई नागसेन है ? नागसेन-नहीं। मिलिन्द-तो फिर सामने दिखाई देनेवाले नागसेन क्या है ? नागसेन-महाराज ! आप यहां रथसे आये हैं, या पैदल चलकर? मिलिन्द-रथ से। नागसेन-आप यहां रथसे आये हैं, तो मैं पूछता हूं कि रथ किसे कहते है ? क्या पहियोंको रथ कहते हैं ? क्या धुरैको रय कहते हैं ? क्या रथमें लगे हुए डण्डोंको रथ कहते है ? (मिलिन्दने इनका उत्तर नकारमें दिया) नागसेन-तो क्या पहिये, धुरे, डण्डे आदिके अलावा रथ अलग वस्तु है ? (मिलिन्दने फिर नकार कहा ) नागसेन-तो फिर जिस रथ से आप आये है, वह क्या है ? मिलिन्द-पहिये, धुरा, डण्डे आदि सबको मिलाकर व्यवहारसे रथ कहा जाता है। पहिये आदिको छोड़कर रथ कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं। नागसेन-जिस प्रकार पहिये, धुरे आदिके अतिरिक्त रथका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उसी तरह रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कंधोंको छोड़कर नागसेन कोई अलग वस्तु नहीं है। १. आत्मवादको इन तीन मान्यताओंका उल्लेख धर्मपालाचार्यने अपनी विज्ञानमात्रशास्त्रकी संस्कृत टीकामें किया है। यह टोका उपलब्ध नहीं है। जापानी विद्वान यामाकामी सोगेनने ने यह उल्लेख अपनी Systems of Buddhist thought नामक पुस्तकके १७ वें पृष्ठपर उक्त ग्रंथके हुएनत्सांग के चीनी अनुवादके आधारसे किया है। २. पुरग्लो नुपलब्भति । मिलिन्दपण्हमें अत्ता (आत्मा) शब्दके स्थानपर जीव, पुग्ल और वेदगू शब्दोंका व्यवहार किया है। देखिये मिसेज़ राइस डैविड्स Question of Milindas नागसेनोति संखा समजा पचत्ति वोहारो नाममत्त पवत्तति । परमत्थत्तो पन एत्य पुग्गलो नुपलब्भति । भासितं पन एतं महाराज वजिराय भिक्खुनीया भगवतो सम्मुखा यथाहि अंग संभारा होति सद्दो रथो इति । एवं खन्धेसु सत्तेसु होंति सत्तोति सम्मुति ॥ मिलिन्दपण्ह, अध्याय २, पृ. २५-२८॥ ३.
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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