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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) २९९ इसमें पहले दोके चौदह-चौदह, और बादके पांचके ग्यारह-ग्यारह अवान्तर भेद होनेसे परिकर्मके ८३ भेद होते हैं। दिगम्बर सम्प्रदायमें परिकर्मके पांच भेद किये गये हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । सूत्र बाईस है । बाईस सूत्रोंके चार-चार भेद होनेसे सव सूत्र अठासी होते हैं। पूर्वगतके चौदह भेद है-उत्पाद, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणवाद, कियाविशाल और लोकबिन्दुसार । अनुयोगके दो भेद हैं-मल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग । अनुयोगको दिगंबर ग्रंथोंमें प्रथमानुयोगके नामसे कहा है । चूलिका-श्वेतांवरोंके अनुसार चौदह पूर्वोमें ही चूलिका है। पहले पूर्वकी चार, दूसरे पूर्वको बारह, तीसरेको आठ और चौथे पूर्वकी दस चूलिकायें हैं । दिगम्बर ग्रंथोंमें चूलिकाके पांच भेद मिलते है-जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता । स्त्रियोंको दृष्टिवाद पढ़नेका निषेध है। अंगबाह्य-गणधरोंके बादमें होनेवाले आचार्य अल्प शक्तिवाले शिष्योंके लिये अंगबाह्यकी रचना करते हैं। अंगबाह्य अनेक प्रकारका है। श्वेताम्बर ग्रंथोंमें अंगबाह्यके दो भेद है-आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकके छह भेद है-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । आवश्यकव्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । उत्तराध्ययन आदि छत्तीस ग्रंथ कालिक, और दशवकालिक आदि अट्ठाइस ग्रंथ उत्कालिक है। दिगम्बर ग्रंथोंमें अंगबाह्यके चौदह भेद है-सामायिक चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक और निषिद्धिका । श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार सर्वप्रथम इन आगम-ग्रंथों का संग्रह महावीर-निर्वाण (ई० पू० ५२७) के लगभग १६० वर्ष पश्चात् ( ईसवी सन् के पूर्व ३६७), स्थूलभद्रके अधिपतित्वमें पाटलिपुत्र में होनेवाली परिषद्में किया गया था। उसके बाद लगभग ईसाकी छठी शताब्दिके आरंभमें देवधिगणिने बलभीमें इन्हें व्यवस्थित कर लिपिबद्ध किया। आगम-ग्रंथ एक समयमें नहीं लिखे गये हैं: भिन्न-भिन्न आगमोंका भिन्न-भिन्न समय है। इसलिये आगमका प्राचीनतम भाग महावीर-निर्वाण के लगभग डेढ़-सौ बरस बादईसाके पूर्व चौथी शताब्दिके आरम्भमें, तथा आगमका सबसे अर्वाचीन भाग ईसाकी छठी शताब्दीके आरंभमें देवर्षिगणि क्षमाश्रमणके कालमें व्यवस्थित किया गया है। श्लोक २७ पृ० २४०, पं० ५ : प्राण प्राण शब्द वैदिक शास्त्रोंमें विविध अर्थों में प्रयुक्त किया गया है-कहीं प्राण शब्द का प्रयोग आत्माके अर्थमें, कहीं इन्द्रके अर्थमें, कहीं सूर्यके अर्थमें, और कहीं सामके अर्थमें । एक जगह उपनिषदोंमें प्राणको आत्माका कार्य कहा है, दूसरी जगह आत्मासे प्राणकी उत्पत्ति बताई गई है। कहीं प्राणको प्रज्ञा कहा गया है, और कहीं प्राण शब्दको मृत्युके पश्चात् जानेवाले सूक्ष्म शरीरका पर्यायवाची बताया है। वेदान्ती लोगोंने प्राणको ब्रह्मका पर्यायवाची माना है। जैन सिद्धान्तमें 'प्राण' पारिभाषिक शब्द है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें 'प्राण' अधिकार अलग है। जिसके द्वारा जीव जीता है, उसे प्राण कहा जाता है। प्राणके दो भेद है-द्रव्यप्राण और भावप्राण । आँखोंका खोलना, बंद करना, श्वासोच्छ्वास लेना, काय-व्यापार आदि बाह्य द्रव्यइन्द्रियोंके व्यापारको द्रव्यप्राण कहते हैं। तथा इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे होनेवाली चैतन्य रूप आत्माकी प्रवृत्तिको भावप्राण कहते हैं। प्राण दस होते हैं-पांच इंद्रिय, मन, वचन और कायबल, श्वासोछ्वास और आयु । १. तत्त्वार्थभाष्यमें ऋषियोंके कहे हए कपिल आदि प्रणीत ग्रंथोंको भी अंगबाह्य कहा गया है। १. देखिये जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पू० ३३-१०४ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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