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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) २९७ प्रदेशमें भिन्न-भिन्न न माना जाय, तो कुरुक्षेत्र, लंका आदिके आकाश-प्रदेशोंमें दिन आदिका व्यवहार नहीं हो सकता। इसलिये व्यवहारकालके आकाशके प्रदेशोंमें भिन्न-भिन्न होनेसे निश्चयकाल भी कालाणु रूपसे भिन्न-भिन्न सिद्ध होता है । क्योंकि निश्चयकालके बिना व्यवहारकाल नहीं होता।' श्लोक. २३ पृ. २०६, पं. ७ द्वादशांग श्रुतके दो भेद है-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । सर्वज्ञ भगवान्के कहे हुए प्रवचनके गणधरों द्वारा शास्त्र रूपमें लिखे जानेको अंगप्रविष्ट कहते हैं । इसके बारह भेद हैं । इसे ही द्वादशांग' कहते हैं । द्वादशांगको गणिपिटक भी कहा जाता है। जैन द्वादशांगके मूल उपदेष्टा ऋपभदेव माने जाते हैं। द्वादशांग-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ), ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपादिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूव और दृष्टिवाद । दिगम्बरोंकी मान्यताके अनुसार आगमसाहित्य लुप्त हो गया है । श्वेताम्बर आम्नायमें दृष्टिवादको छोड़कर ग्यारह अंग आजकल भी उपलब्ध हैं । आचारांग-इसे सामयिक नामसे भी कहा गया है। इसमें निग्रंथ एवं निर्ग्रथिनियोंके आचारका वर्णन है । इसमें दो श्रुतस्कंध है । प्रथम श्रुतस्कंधमें आठ और द्वितीय श्रुतस्कंधमें सोलह अध्ययन हैं । द्वितीय श्रुतस्कंधमें महावीरका जीवनचरित्र है । आचारांग सूत्र सब सूत्रोंसे प्राचीन है। इस उंगको प्रवचनका सार भी कहा जाता है। इसके ऊपर भद्रबाहुकी नियुक्ति, जिनदासगणि महत्तरको चूर्णी, और शीलांककी .टीका है। सूत्रकृतांग--सूत्रकृतांगमें साधुओंकी चर्या और अहिंसा आदिका वर्णन है। इसमें क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिक, अज्ञानवादी आदि अनेक मतोंकी समीक्षाके साथ ब्राह्मणोंके यज्ञ-याग आदिकी निन्दा की गई है; यह अंग ऐतिहासिक महत्त्वका है। इसमें दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध श्लोकों में है। इसमें सोलह अध्ययन हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध गद्यमें है। इसमें सात अध्ययन हैं। इसपर भद्रबाहकी नियुक्ति जिनदासगणि महत्तरकी चूर्णी और शीलांकको टीका है। दिगम्बरोंके अनुसार इसमें ज्ञान, विनय, प्रज्ञापना आदि व्यवहारधर्मकी क्रियाओंका वर्णन है। स्थानांग-इसमें बौद्धोंके अंगुत्तरनिकायकी तरह एकसे लेकर दस तक जीव आदिके स्थान बताये गये हैं। इसमें द्रव्योंके स्वरूप आदिका विस्तृत वर्णन है । स्थानांगमें दस अध्याय हैं। इसपर नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरिकी टीका है । दिगम्बरोंके अनुसार इस अंगमें दसकी मर्यादा नहीं है। समवायांग-इसमें एकसे लगाकर कोड़ाकोडि स्थान तककी वस्तुओंका वर्णन है। यहां बारह अंग और चौदह पूर्वोका वर्णन मिलता है। इस अंगमें अठारह प्रकारको लिपि, उनतीस पापश्रुत, उत्तराध्ययनके १. प्रमेयकमलमात्तंड परि. ४ पृ. १६९ । २. द्वादशांगमें बारह उपांग, दस प्रकीर्णक, छह छेदसूत्र, दो चूलिकासूत्र और चार मूलसूत्रको मिलानेसे श्वेताम्बरोंके कुल ४६ आगम होते हैं। बारह उपांग-१ औपपातिक, २ राजप्रश्नीय, ३ जीवाजीवाभिगम, ४ प्रज्ञापना, ५ सूर्यप्रज्ञप्ति, ६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७ चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८ निरयावलिया, ९ कल्पावतंसिका, १० पुष्पिका, ११ पुष्पचूलिका, १२ वृष्णिदशा। दस प्रकीर्णक-१ चतुः शरण, २ आतुरप्रत्याख्यान, ३ भक्तपरिज्ञा, ४ संस्तार, ५ तंदुलवैचालिक, ६ चंदाविज्झय, ७ देवेन्द्रस्तव, ८ गणिविद्या, ९ महाप्रत्याख्यान, १० वीरस्तव । छह छेदसूत्र-१ निशीथ, २ महानिशीथ, ३ व्यवहार, ४ आचारदशा, ( दशाश्रुतस्कंध अथवा दशा), ५ बृहत्कल्प, ६ पंचकल्प ( जीतकल्प)। चूलिकासूत्र-१ अनुयोगद्वार, २ नन्दिसूत्र । चार मूलसूत्र-१ उत्तराध्ययन, २ आवश्यक, ३ दशवैकालिक, ४ पिंडनियुक्ति ( ओघनियुक्ति) । श्वेताम्बर स्थानकवासी ३२ आगम मानते हैं। ३८
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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