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________________ २८८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां अपुनबंधक वितर्कप्रधान होता है, और इसके क्रमसे कर्म और आत्माका वियोग होकर इसे मोक्ष मिलता है। श्लो०९ पृ० ७१ पं० १० : प्रदेश पुद्गलके सबसे छोटे अविभागी हिस्सेको परमाणु कहते हैं । यह परमाणु कारणरूप अंत्यद्रव्य कहा जाता है। परमाणु नित्य, सूक्ष्म और किसी एक रस, गंध, वर्ण और दो स्पर्शोसे सहित होता है। परमाणु आकाशके जितने प्रदेशको घेरता है, उसे जैन शास्त्रोंमें प्रदेश कहा गया है। प्रदेशके दूसरे अंशोंकी कल्पना नहीं हो सकती। जैन सिद्धांतमें धर्म, अधर्म और जीव द्रव्योंमें असंख्यात, कालमें अनन्त, पुद्गलमें संख्यात, असंख्यात, अनंत और कालमें एक प्रदेश माने गये हैं। पुद्गल द्रव्यके प्रदेश पुद्गल-स्कंधसे अलग हो सकते हैं, इसलिये पुद्गलके सूक्ष्म अंशोंको अवयव कहा जाता है । पुद्गल द्रव्यके अतिरिक्त अन्य द्रव्योंके सूक्ष्म अंश अपनेअपने स्कंधोंसे पृथक् नहीं हो सकते, इसलिये अन्य द्रव्योंके सूक्ष्म अंशोंको प्रदेश नामसे कहा गया है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और मुक्त जीव सदा एक समान अवस्थित रहते हैं, इसलिये इनके प्रदेशोंमें अस्थिरता नहीं होती। पुद्गल द्रव्यके परमाणु और स्कंध अस्थिर, तथा अंतिम महास्कंध स्थिर और अस्थिर दोनों होते हैं। यद्यपि जीव द्रव्य अखंड है, फिर भी वह असंख्यात प्रदेशी है। जैन दर्शनकी मान्यता है कि जिस प्रकार गुड़के ऊपर बहुत-सी धूल आकर इकट्ठी हो जाती है, उसी प्रकार एक-एक आत्माके प्रदेशके साथ अनंतानंत ज्ञानावरण आदि कर्मोके प्रदेशोंका संबंध होता है। संसारी जीवोंके प्रदेश चलायमान रहते हैं । ये प्रदेश तीन प्रकारके होते है । विग्रह गतिवाले जीवोंके प्रदेश सदा चल होते हैं, अयोगकेवलीके प्रदेश सदा अचल होते है, और शेष जोवोंके आठ प्रदेश अचल और बाकी प्रदेश चल होते हैं। यदि जीवमें प्रदेशोंकी कल्पना न की जाय, तो जिस तरह निरंश परमाणुका किसी मूर्तमान द्रव्यके साथ संबंध नहीं हो सकता, उसी तरह आत्माका भी मूर्तिमान शरीरसे संबंध नहीं हो सकता। अतएव जिस समय अमूर्त आत्मा लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर होकर भी मूर्त कर्मोके संबंधसे कार्माण शरीरके निमित्तसे सूक्ष्म शरीरको धारण करता है, उस समय सूखे चमड़ेकी तरह आत्माके प्रदेशोंमें संकोच होता है, और जिस समय यह आत्मा सूक्ष्म शरीरसे स्थूल शरीरको प्राप्त करता है, उस समय जलमें तेलकी तरह आत्माके प्रदेशोंमें विस्तार होता है। अतएव आत्मा अमूर्त होकर भी संकोच और विस्तार होनेकी अपेक्षा शरीरके परिमाण माना जाता है। यदि आत्माको अचेतन द्रव्योंके विकारसे रहित सर्वथा अमूर्त माना जाय, तो आत्मामें ध्यान, ध्येय आदिका व्यवहार नहीं हो सकता, तथा आत्माको मोक्ष भी नहीं मिल सकता। अतएव शक्तिको अपेक्षा आत्माको १. देखिये हरिभद्रकृत योगबिन्दु ११५ से आगे; तथा यशोविजय-अपुनर्बन्धद्वात्रिंशिका। २. अकलंक आदि दिगम्बर विद्वानोंने परमाणुको कथंचित कार्यरूप भी माना है। देखिये तत्त्वार्थराजवर्तिक ५-२५-५ । ३. अतएव च भेदः प्रदेशानामवयवानां च, ये न जातुचिद् वस्तुव्यतिरेकेणोपलभ्यन्ते ते प्रदेशाः । ये तु विशकलिताः परिकलितमूर्तयः प्रज्ञापथमवतरन्ति तेऽवयवा इति । तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५-६, पृ० ३२८। ४. शुष्कर्मवत् प्रदेशानां संहारः । तस्यैव बादरशरीरमधितिष्ठतो जले तैलवद्विसर्पणम् विसर्पः। तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक ५-१६ । ५. तुलनीय-यथा क्षुरः क्षुरघाने हितः स्याद्विश्वंभरो वा विश्वंभरकुलाये। एवमेवष प्राज्ञ आत्मेदं शरीरमनुप्रविष्ट आलोमेभ्यः आनखेभ्यःअर्थात् जिस प्रकार छुरा अपने घर (क्षुराधान) और अग्नि चूल्हा, अंगीठी आदि अपने स्थानमें व्याप्त होकर रहते हैं, उसी तरह नखोंसे लगाकर बालों तक यह आत्मा शरीरमें व्याप्त है ! कौषीतकी उ०४-१९ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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