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________________ अयोगव्यवच्छेदिका २७७ अर्थ-हे वीर ! केवल श्रद्धाके कारण न आपके प्रति हमारा कोई पक्षपात है, और न द्वेषके कारण अन्य देवताओंमें अविश्वास, किन्तु यथार्थ रोतिसे आप्तकी परीक्षा करके ही हमने आपका आश्रय ग्रहण किया है। भगवान्की वाणीकी महत्ता तमःस्पृशामप्रतिभासभाजं भवन्तमप्याशु विविन्दते याः। महेम चन्द्रांशुदृशावदातास्तास्तर्कपुण्या जगदीश वाचः ॥३०॥ अर्थ-हे जगदीश ! जो वाणी अज्ञान-अंधकारमें फिरनेवाले पुरुषोंके अगोचर ऐसे आपको प्रगट करती है, उस चन्द्रमाकी किरणोंके समान स्वच्छ और तकसे पवित्र आपकी वाणीको हम पूजा करते हैं। भगवान्के वीतराग गुणकी सर्वोत्कृष्टता यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥३१॥ अर्थ-भगवन् ! जिस किसी शास्त्रमें, जिस किसी रूपमें, और जिस किसी नामसे जिस वीतरागदेवका वर्णन किया गया है, वह आप एक ही हैं, अतएव आपको नमस्कार है ! उपसंहार इदं श्रद्धामात्रं तदथ परनिन्दां मृदुधियो विगाहन्तां हन्त प्रकृतिपरवादव्यसनिनः। अरक्तद्विष्टानां जिनवर परीक्षाक्षमधिया मयं तत्वालोकः स्तुतिमयमुपाधि विधृतवान् ॥३२॥ अर्थ-कोमल बुद्धिवाले पुरुष इस स्तोत्रको श्रद्धासे बनाया हुआ समझें, वादशील पुरुष इसे परनिन्दा करनेके लिये रचा हुआ मानें, परन्तु हे जिनवर ! परीक्षा करने में समर्थ राग-द्वेषसे रहित पुरुषोंको तत्त्वोंके प्रकाश करनेवाला यह स्तोत्र स्तुतिरूप धर्मके चिंतनमें कारण है। ॥ समाप्त ॥ १. सत्त्वोपधातनिरनुग्रहराक्षसानि वक्तप्रमाणरचितान्यहितानि पीत्वा । अद्वारकं जिन समस्तमसो विशन्ति येषां न भान्ति तव वाग्द्युतयो मनस्सु ॥ द्वा. द्वात्रिशिका २.१७ । २. उपाधिर्धर्मचिन्तनम् । अभिधानचिन्तामणि ६.१७ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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