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________________ २७४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां अर्थ हे भगवन् ! चाहे अन्यवादी हजारों वर्ष तक तप तपें, अथवा युगांतरों तक योगका अभ्यास करें, फिर भी आपके मार्गका विना अवलम्ब लिये उन लोगोंको मोक्ष नहीं मिल सकता। परवादियोंके उपदेश भगवान्के मार्ग में वाधा नहीं पहुंचा सकते अनाप्तजाड्यादिविनिर्मितित्वसंभावनासंभविविप्रलम्भाः। परोपदेशाः परमाप्तक्लुप्तपथोपदेशे किमु संरभन्ते ॥१५॥ अर्थ-हे देवाधिदेव ! अनाप्तोंकी मंद बुद्धि द्वारा रचे हुए विसंवादरूप दूसरोंके उपदेश परम आप्तके द्वारा प्रतिपादित उपदेशोंमें क्या कुछ बाधा पहुँचा सकते हैं ? अर्थात नहीं। भगवान्के शासनकी निरुपद्रवता यदार्जवादुक्त मयुक्तमन्यैस्तदन्यथाकारमकारि शिष्यैः । न विप्लवोऽयं तव शासनेऽभूदहो अधृष्या तंव शासनश्री ॥१६॥ अर्थ-अन्य मतावलम्बियोंके गुरुओंने जो कुछ सरल भावसे अयुक्त कथन किया था, उसे उनके शिष्योंने अन्यथा प्रतिपादन किया। हे भगवन् ! आश्चर्य है कि आपके शासनमें इस प्रकारका विप्लव नहीं हो सका, अतएव आपका शासन अजेय है। परवादियोंके देवोंकी मान्यतामें परस्पर विरोध देहाद्ययोगेन सदाशिवत्वं शरीरयोगादुपदेशकर्म । परस्परस्पर्धि कथं घटेत परोपक्लुप्तेष्वधिदैवतेषु ॥१७॥ अर्थ-हे वीतराग ! एक ही ईश्वर देहके अभावसे सदा आनन्दरूप है, और देहके सद्भावसे उपदेशका देनेवाला है-इस प्रकार परवादियोंके देवताओंमें परस्पर विरोधी गुण कैसे रह सकते हैं ? मोहका अभाव होनेसे भगवान् अवतार नहीं लेते प्रागेव देवांतरसंश्रितानि रागादिरूपाण्यवमांतराणि ।। नमोहजन्यां करुणामपीश समाधिमास्थाय युगाश्रितोऽसि (१) ॥१८॥ अर्थ-नीच वृत्तिवाले राग आदि दोषोंने पहले ही अन्य देवोंका आश्रय लिया है। इसलिये हे ईश ! आप समाधिको प्राप्त करके मोहजन्य करुणाके वश होकर भी युग-युगमें अवतार धारण नहीं करते। अपने ही संसारके क्षय करनेका यथार्थ उपदेश दिया है जगन्ति भिन्दन्तु सृजन्तु वा पुनर्यथा तथा वा पतयः प्रवादिनाम् । त्वदेकनिष्ठे भगवन् भवक्षयक्षमोपदेशे तु परं तपस्विनः ॥१९॥ १. सच्छासनं ते त्वमिवाप्रधृष्यम् । द्वा. द्वात्रिंशिका ५.२६ । २. स्वपक्ष एवं प्रतिबद्धमत्सरा यथान्यशिष्या स्वरुचिप्रलापिनः । निरुक्तसूत्रस्य यथार्थवादिनो न तत्तथा यत्तव कोऽत्र विस्मयः ।। द्वा. द्वात्रिशिका १.१७; ५.२७ । ३. यहाँ 'युगाश्रितोऽसि' का अर्थ ठीक नहीं बैठता । श्लोकका यह अर्थ श्रीमद्विजयानंद (आत्मारामजी) विरचित तत्त्वनिर्णयप्रासादके आधारसे लिखा गया है। मुनि चरणविजयजी द्वारा सम्पादित और आत्मानन्द जैन सभाद्वारा प्रकाशित (१९३४) अयोगव्यवच्छेदिकामें 'समाधिमास्थाय'के स्थानपर 'समाधिमाध्यस्थ्य' पाठ है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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