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________________ प्रशस्ति ] स्याद्वादमञ्जरी २६९ धारणस्य गम्यमानत्वात् त्वय्येव विषये न देवान्तरे । कृतधियः । करोतिरत्र परिकर्मणि वर्तते यथा हस्तौ कुरु पादौ कुरु इति । कृता परिकर्मिता तत्त्वोपदेशपेलतत्तच्छास्त्राभ्यासप्रकर्षेण संस्कृता धर्बुद्धिर्येपां । ते कृतधियश्चिद्रूपाः पुरुषाः । कृतसपर्याः । प्रादिकं विनाप्यादिकर्मणा गम्यमानत्वान् । कृता कर्तुमारब्धा सपर्या सेवाविधिर्यैस्ते कृतसपर्याः । आराध्यान्तरपरित्यागेन त्वय्येव सेवाहेवाकितां परिशीलयन्ति ॥ इति शिखरिणीच्छन्दोऽलंकृत काव्यार्थः ॥ ३२ ॥ ॥ समाप्ता चेयमन्ययोगव्य च्छेदद्वात्रिंशिकास्तवनटीका || टीकाकारस्य प्रशस्तिः । येषामुज्ज्वलहेतुहेतिरुचिरः प्रामाणिकाध्वस्पृशां हेमाचार्य समुद्भवस्तवनभूरर्थः समर्थः सखा । तेषां दुर्नयदस्युसम्भवभयास्पृष्टात्मनां सम्भवन्यायासेन विना जिनागमपुरप्राप्तिः शिवश्रीप्रदा ॥ १ ॥ चतुर्विद्यमहोदधेर्भगवतः श्रीहेमसूरेगिरां गम्भीरार्थविलोकने यदभवद् दृष्टिः प्रकृष्टा मम । द्राघ्रीयः समयादुराग्रहपराभूतप्रभूताव मं तन्नूनं गुरुपादरेणुकणिकासिद्धाञ्जनस्योर्जितम् ॥ २ ॥ आप तीनों लोकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं । अतएव तत्त्वोपदेश और शास्त्राभ्याससे प्रकृष्ट बुद्धिवाले विद्वान् लोग आपकी ही सेवा करते हैं, अन्य देवोंकी नहीं। जैसे 'हाथोंको कर' ( हस्तौ कुरु), 'पैरोंको कर' ( पादौ कुरु ) यहाँ 'कृ' धातु परिकर्म अर्थ में प्रयुक्त हुई है, वैसे ही 'कृतधियः' पदमें 'कृ' धातुका परिकर्म अर्थ है । 'प्र' आदि उपसर्ग के बिना भी 'कृ' धातुका अर्थ प्रारम्भ करना होता है, इसलिये 'कृतसपर्या:' में कृतका अर्थ प्रारम्भ करना है | यह शिखरिणी छन्द श्लोकका अर्थ है ॥ ३२ ॥ भावार्थ–वस्तुका सर्वथा एकान्त रूपसे प्रतिपादन करनेवाले एकान्तवादियोंने इस जगत्को अज्ञान-अन्धकारमें डाल रक्खा है । अतएव सम्पूर्ण एकान्तवादोंका समन्वय करनेवाले अनेकान्तवादसे ही इस जगत्का उद्धार हो सकता है। इसलिये अनेकान्तवादका प्रतिपादन करनेवाले जिन भगवान्में ही जगतके उद्धार करने को असाधारण सामर्थ्य है । इति अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका टीका Catarra प्रशस्ति प्रामाणिक मार्गको अनुकरण करनेवाले जिन लोगोंके उज्वल हेतुरूपी शस्त्रोंसे सुन्दर हेमचन्द्राचार्यकी स्तुतिसे उत्पन्न होनेवाले अर्थरूपी समर्थ मित्र विद्यमान है, वे लोग दुर्नयरूपी लुटेरोंसे नहीं डरते और वे विना प्रयत्नके ही मोक्ष सुखके देनेवाले जिनागमरूपी नगरको प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥ चारों विद्याओंके समुद्र भगवान् श्री हेमचन्द्राचार्यकी वाणोके गम्भीर अर्थको अवलोकन करने में जो मेरी प्रकृष्ट बुद्धि हुई है, और सतत बहुत समयके श्रादरसे जो विघ्नों का नाश हुआ है, वह सब गुरु महाराजके चरणोंकी धूलिरूप सिद्धांजनका फल है ॥ २ ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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