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________________ २६६ श्रीमद्राज चन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक ३१ मपि परिज्ञानात् । तथा चार्षम् - " अरहन्तुवएसेणं सिद्धा णज्जंति तेण अरहाई”" इति । ततः सिद्धं भगवत एव मुख्यत्वम् । यदि तव वाग्वैभवं निखिलं विवेक्तुमाशास्महे ततः किमित्याह लङ्ङ्घेम इत्यादि । तदा इत्यध्याहार्यम् । तदा जङ्घालतया जाङ्घिकतया वेगवत्तया समुद्रं लङ्केम किल समुद्रमिव अतिक्रमामः । तथा वहेम धारयेम । चन्द्रद्युतीनां चन्द्रमरीचीनां पानं चन्द्रद्युतिपानम् । तत्र तृष्णा तर्षोऽभिलाष इत यावत् चन्द्रद्युतिपानतृष्णा ताम् । उभयत्रापि सम्भावने सप्तमी । यथा कश्चिच्चरणचङ्क्रमणवेगवत्तया यानपात्रादि अन्तरेणापि समुद्रं लङ्घि तुमीहते यथा च कश्चिचन्द्रमरीचीरमृतमयीः श्रुत्वा चुलुकादिना पातुमिच्छति, न चैतद् द्वयमपि शक्यसाधनम् । तथा न्यक्षेण भवदीयवाग्वैभववर्णनाकाङ्क्षापि अशक्यारम्भप्रवृत्तितुल्या | आस्तां तावत् तावकीनवचनविभवानां सामस्त्येन विवेचनविधानम्, तद्विषयाकाङ्क्षापि महन् साहसमिति भावार्थः ॥ अथवा 'लघु शोषणे " इति धातोर्लम शोषयेम समुद्रं जङ्घालतया अतिरंहसा । अतिक्रमणार्थलङ्घेस्तु प्रयोगे दुर्लभं परस्मैपदमनित्यं वा आत्मनेपदमिति । अत्र च औद्धत्य - परिहारेऽधिकृतेऽपि यद् आशास्महे इत्यात्मनि बहुवचनमाचार्यः प्रयुक्तवांस्तदिति सूचयति यद् विद्यन्ते जगति मादृशा मन्दमेधसो भूयांसः स्तोतारः इति बहुवचनमात्रेण न खलु अहङ्कारः स्तोतरि प्रभो शङ्कनीयः । प्रत्युत निरभिमानताप्रासादोपरि पताकारोप एवावधारणीयः ॥ इति काव्यार्थः ॥ ३१ ॥ एषु एकत्रिंशतिवृत्तेषु उपजातिच्छन्दः ॥ एवं विप्रतारकैः परतीर्थिकैर्व्यामोहमये तमसि निमज्जितस्य जगतोऽभ्युद्धरणेऽव्यभि है, अतएव अहंत ही मुख्य है । आगममें कहा भी है- "अहंत के उपदेशसे सिद्धोंकी पहचान होती है, अतएव अर्हत मुख्य हैं ।" जिस प्रकार जहाजके बिना ही पैदल चलकर समुद्रको लांघना असम्भव है, अथवा जिस प्रकार चन्द्रमाकी अमृतमय किरणोंको केवल चुल्लूसे पान करना असंभव है, उसी तरह आपके वचनों के वैभवके वर्णनकी इच्छा करना भी असंभव है । अतएव आपके समस्त वचन - वैभवका वर्णन तो दूर रहा, उस वर्णन करनेकी इच्छा करना भी महान् साहस है। श्लोक में 'तदा' शब्दका अध्याहार करना चाहिये । अथवा 'लघु' धातुका अर्थ शोषण करके 'समुद्रं जंघालतया लंघेम' का अर्थ करना चाहिये - जो शीघ्रतासे समुद्रका शोपण करना चाहते हैं। अतिक्रमण अर्थ में 'लङ्घि' धातु परस्मैपदो नहीं होती, अतएव यहाँ शोपण अर्थ में 'लघु' घातुसे परस्मैपदमें 'लंघेम' रूप बनाना चाहिये । अथवा यदि आत्मनेपदको अनित्य माना जाय तो अतिक्रमण अर्थ में प्रयुक्त 'लंघि' धातुसे भी यह रूप बन सकता है । श्लोक में 'आशास्महे' बहुवचन के प्रयोग से स्तुतिकारका अहंकार प्रगट नहीं होता। इस प्रयोग से स्तुतिकारका यही अभिप्राय है कि संसारमें मेरे समान और भी मन्द बुद्धिवाले स्तुति करनेवाले हैं । अतएव इससे आचार्यका निरभिमान ही सिद्ध होता है | यह श्लोकका अर्थ है ॥ ३१ ॥ इन इकतीस श्लोकोंमें उपजाति छन्दका प्रयोग किया गया है । भावार्थ - हेमचन्द्र आचार्य अपनी लघुता बताते हुए कहते हैं, कि जिस प्रकार पैदल चल कर समुद्रको लांघना अथवा चुल्लूसे चन्द्रमाकी चाँदनीका पान करना असम्भव है, उसी तरह आपके समस्त गुणों का वर्णन करना असम्भव है । वंचक अन्य तैर्थिक लोगोंके उपदेशसे व्यामोह रूप अन्धकार में डूबे हुए जगत्‌का उद्धार करनेके लिये २. छाया - अर्हदुपदेशेन सिद्धा ज्ञायन्ते तेनार्हदादिः । विशेषावश्यकभाष्ये ३२१३ । १. है मधातुपारायणे भ्वादिगणे धा. ९८ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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