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________________ २५८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २९ आख्यः मर्यादा प्ररूपितवान् । यथा येन प्रकारेण न दोषो दूषणमिति । जात्यपेक्षमेकवचनम् । प्रागुक्तद्रोपद्वयजातीय अन्येऽपि दोपा यथा न प्रादुःण्यन्ति तथा त्वं जीवानन्त्यमुपदिष्टवानित्यर्थः । आख्यः इति आङ्पूर्वस्य ख्यातेरडि सिद्धिः। त्वमित्येकवचनं चेदं ज्ञापयति यद् जगद्गुरोरेव एकन्यदृक्प्ररूपणसामर्थ्य, न तीर्थान्तरशास्तृणामिति ॥ ___ पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथा सात्मिका विद्रुमशिलादिरूपा पृथिवी. छेदे ममानधानूत्थानाद्, अर्थोऽङ्करवत् । भौममम्भोऽपि सात्मकम् , क्षतभूसजातीयस्य स्वभावस्य सम्भवान . शालरवन् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम् , अभ्रादिविकारे स्वतः सम्भूय पातान् . मत्स्यादिवत् । तेजोऽपि सात्मकम् , आहारोपादानेन वृद्धयादिविकारोपलम्मात् , पुरुपाङ्गबन । वायुरपि सात्मकः. अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्वाद् गोवत् । वनस्पतिरपि सात्मकः, अपरप्रग्नित्वे तिर्यग्गतिमत्वाद् गोवन् । वनसतिरपि सात्मकः, छेदादिमिर्लान्यादिदर्शनात् , पुरुपाङ्गवन् । केपाश्चिन् स्वापागनोपश्लेषादिविकाराच्च। अपकर्षतश्चैतन्याद् वा सर्वेपां सात्मकत्वसिद्धिः। आप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषाचित् सात्मकत्वे विगानमिति । यथा च भगवदुपक्रमे जीवानन्त्ये न दोषस्तथा दिङ्मानं भाव्यते। भगवन्मते हि जीवकाय शब्दको मान कर समासमें 'पड़जीवकायं' नपुंसक लिंग बनाया है। अथवा समूह अर्थ में समास न करके 'छह प्रकारके जीवोंका संघात' अर्थ करके 'पड्कायजीवः' पुल्लिगान्त समास वनाना चाहिये । अतएव जिन भगवानने ही निर्दोष रीतिसे जीवोंको अनन्त स्वीकार किया है, दूसरे वादियोंने नहीं। आज पूर्वक 'ख्या' धातुसे अङ्ग प्रत्यय लगानेपर 'आख्यः' क्रियापद वनता है। ( १ ) मूंगा पापाण आदिल्प पृथिवी सजीव है, क्योंकि अर्शके अंकुरकी तरह पृथिवीके काटनेपर. वह फिरसे उग आती है। (२) पृथिवीका जल सजीव है, क्योंकि मेंढककी तरह जलका स्वभाव खोदी हई पथिवीके समान है। आकाशका जल भी सजीव है, क्योंकि मछलीकी तरह वादलके विकार होनेपर वह स्वत. ही उत्पन्न होता है। ( 1 ) अग्नि भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगोंकी तरह आहार आदिके ग्रहण करनेसे उसमे वृद्धि होती है। (४) वायुमें भी जीव है, क्योंकि गौकी तरह वह दूसरेसे प्रेरित होकर गमन करती है । (५) वनस्पतिमें भी जीव है, क्योंकि पुरुषके अंगोंकी तरह छेदनेसे उसमें मलिनता देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पादाघात आदिमे विकार होता है, इसलिये भी वनस्पतिमें जीव है। अथवा जिन जीवोंमें चेतना घटती हुई देखी जाती है, वे सव सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान्ने पृथिवी आदिको जीव कहा है। (६) कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि स जीवोंमें सभी लोगोंने जीव माना है। जिनमतमें छहनिकायके जीवोंमें सबसे कम त्रस जीव है। त्रस जीवों में संख्यात.गणे अग्निकायिक, १. ननु चेतनत्वमपि क्वचिदचेतनत्वाभिमतानां भूतेन्द्रियाणां श्रयते । यथा 'मृदब्रवीत् 'आपोजवन् (श०प० प्रा०६-१-३-२-४) इति, 'तत्तेज ऐक्षत' 'ता आप ऐक्षन्त' (छा०६-२-३,४) इति चैवमाद्या भूतविषया चेतनत्वश्रुतिः। ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्ये २-१-४। वनस्पत्यादीनां चेतनत्वं महाभारते (शांति० मो० अ० १८२ श्लोक ६-१८) मनुस्मृती (अ० १ श्लो०४६-४९) च समर्थितम् । तथा मत्तकामिनीसनपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्भवः। तथा युवत्यलिंगनात् पनसस्य । तथा सुरभिसुरागण्डूपसेकाकुलस्य । तया सुरभिनिर्मलजलसेकाच्चम्पकस्य । तथा कटाक्षवोक्षणात्तिलकस्य । तथा पंचमस्वरोद्गाराच्छिरीपस्य विरहकस्य पुष्पविकिरणम् । पड्दर्शनसमुच्चय गुणरत्न टीका पृ० ६३ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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