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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २८] स्याद्वादमञ्जरी २४५ सकलशक्तिविरहरूपत्वात् नार्थक्रियानिवर्तनक्षमत्वम् तदभावाच्च न वस्तुत्वं । “यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्” इति वचनात् । वर्तमानक्षणालिङ्गितं पुनर्वस्तुरूपं समस्तार्थक्रियासु व्याप्रियत इति तदेव पारमार्थिकम । तदपि च निरंशमभ्युगन्तव्यम् अंशव्याप्तेयुक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामन्तरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेन् । न। विरोधव्याघ्राघ्रातत्वात् । तथाहि-यदि एकः स्वभावः कथमनेकः अनेकश्चेत्कथमेकः एकानेकयोः परस्परपरिहारेणाबस्थानात्। तस्मात् स्वरूपनिमग्नाः परमाणव एव परस्परोपसर्पणद्वारेण कथंचिन्निचयरूपतामापन्ना निखिलकार्येषु व्यापारमाज इति त एव स्वलक्षणं न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति । एवमस्याभिप्रायेण यदेव स्वकीयं तदेव वस्तु न परकीयम्, अनुपयोगित्वादिति ।। शब्दस्तु रूढिता यावन्तो ध्वनयः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते, यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादयः सुरपतौ तेपां सर्वपामप्येकमर्थमभिप्रैति किल, प्रतीतिवशाद् । यथा शब्दादव्य तिरेकोऽर्थस्य प्रतिपाद्यते तथैव तस्यैकत्वमनेकत्वं वा प्रतिपादनीयम् । न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादयः पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचि तया कदाचन प्रतीयन्ते । तेभ्यः सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्माद् एक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति शब्धते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थः इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् । यथा चायं पर्यायशव्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसम्बन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिदत्ते । न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्तः । एवं सङ्ख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्यः। तत्र सङ्ख्या एकत्वादिः कालोऽतीतादिः कारकं कादि पुरुषः प्रथमपुरुषादिः।। सकती, इसलिये अवस्तु है। क्योंकि "अर्थक्रिया करनेवाला ही वास्तवमें सत् कहा जाता है।" वर्तमान क्षणमें विद्यमान वस्तुसे ही समस्त अर्थक्रिया हो सकती है, इसलिये यथार्थमें वही सत् है। अतएव वस्तुका स्वरूप निरंश मानना चाहिये, क्योंकि वस्तुको अंश सहित मानना युक्तिसे सिद्ध नहीं होता। शंका-एक वस्तुके अनेक स्वभाव माने विना वह अनेक अवयवोंमें नहीं रह सकती, इसलिये वस्तुमें अनेक स्वभाव मानने चाहिये। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि यह माननेमें विरोध आता है। तथाहि-एक और अनेकमें परस्पर विरोध होनेसे एक स्वभाववाली वस्तुमें अनेक स्वभाव, और अनेक स्वभाववाली वस्तुमें एक स्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूपमें स्थित परमाणु ही परस्परके संयोगसे कथंचित् समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिये ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा स्थूल रूपको धारण न करनेवाले स्वरूपमें स्थित परमाणु ही यथार्थमें सत् कहे जा सकते हैं। अतएव ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा निज स्वरूप ही वस्तु है, पर स्वरूपको अनुपयोगी होनेके कारण वस्तु नहीं कह सकते । (५) रूढिसे सम्पूर्ण शब्दोंके एक अर्थमें प्रयुक्त होनेको शब्द नय कहते हैं। जैसे शक्र, पुरन्दर-इन्द्र, आदि सव शब्द एक अर्थके द्योतक हैं। जैसे, शब्द और अर्थका अभेद होता है, वैसे ही उसके एकत्व और अनेकत्वका भी प्रतिपादन करना चाहिये। इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थका प्रतिपादन नहीं करते, क्योंकि उनसे एक ही अर्थका ज्ञान होता है। अतएव इन्द्र आदि पर्यायवाची शब्दोंका एक ही अर्थ है । जिस अभिप्रायसे अर्थ कहा जाय, उसे शब्द कहते हैं। अतएव सम्पूर्ण पर्यायवाची शब्दोंसे एक ही अर्थका ज्ञान होता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर परस्पर पर्यायवाची शब्द एक अर्थको द्योतित करते हैं, वैसे ही 'तट, तटी, तटम्' परस्पर विरुद्ध लिंगवाले शब्दोंसे पदार्थोंके भेदका ज्ञान होता है। इसी प्रकार संख्या-एकत्व आदि, काल-अतीत आदि, कारक-कर्ता आदि, और पुरुष-प्रथम पुरुष आदिके भेदसे शब्द और अर्थमें भेद समझना चाहिए ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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