SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २४ ] २२५ दिप्रहारेण हतः पतितो मूर्च्छामतुच्छामासाद्य निरुद्धवाक्प्रसरो भवति, एवं तेऽपि वादिनः स्वाभिमतैकान्तवादेन युक्तिसरणीमननुसरता वज्राशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्याद्वादिनां पुरतोऽकिञ्चित्करा वाङ्मात्रमपि नोच्चारयितुमीशत इति । स्याद्वादमञ्जरी अत्र च विरोधस्योपलक्षणत्वात् वैयधिकरण्यम् अनवस्था संकरः व्यतिकरः संशयः अप्रतिपत्तिः विषयव्यवस्थाहानिरित्येतेऽपि परोद्भाविता दोषा अभ्यूह्याः । तथाहि – सामान्यविशेषात्मकं वस्तु इत्युपन्यस्ते परे उपालब्धारो भवन्ति । यथा - सामान्यविशेषयोर्विधिप्रतिपेधरूपयोर्विरुद्धधर्मयोरेकन्नाभिन्ने वस्तुनि असंभवात् शीतोष्णवदिति विरोधः । न हि यदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिपेधस्याधिकरणं भवितुमर्हति एकरूपतापत्तेः, ततो वैयधि'करण्यमपि भवति । अपरं च येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन च विशेषस्य तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्याम् ? एकेनैव चेत् तत्र पूर्ववद् विरोधः । द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्यां सामान्यविशेषाख्यं स्वभावद्वयमधिकरोति तदानवस्था', तावपि निषेध करके अपने मतको स्थापित करनेके लिये एकान्त पक्षका अवलम्बन लेनेवाले युक्तिमार्गका अनुसरण करनेमें असमर्थ मूर्ख एकान्तवादी एकान्तवादके वज्रप्रहारसे स्याहादियोंके समक्ष निस्तेज होकर न्यायमार्गसे च्युत होकर अवाक् हो जाते हैं । शंका- इस श्लोक में 'विरोधभीता:' इस सामासिक पदमें पाये जानेवाले 'विरोध' शब्दके उपलक्षण होनेसे दूसरोंके द्वारा प्रतिपादित विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और विषयव्यवस्थाहानि - ये आठ दोष आते हैं : ( १ ) जिस प्रकार एक अभिन्न वस्तुमें शीत और उष्ण इन विरुद्ध धर्मोके सद्भावका संभव न होनेसे उन दोनोंमें विरोध होता है, उसी प्रकार एक अभिन्न वस्तुमें विधिरूप ( अस्तित्व रूप ) सामान्य धर्म तथा प्रतिषेध रूप ( नास्तित्व रूप ) विशेष धर्म - इन विरुद्ध धर्मोक सद्भाव न होनेसे उन दोनोंमें विरोध होता है । ( २ ) जो विधि ( विधिरूप सामान्य अर्थात् अस्तित्व ) का अधिकरण होता है, वही प्रतिषेध ( प्रतिषेधरूप विशेष अर्थात् नास्तित्व ) का अधिकरण होने योग्य नहीं । अन्यथाउन दोनोंके एक रूप होने से विधि और प्रतिषेध, इन दोनोंकी एकरूपताका प्रसंग उपस्थित हो जायेंगा। विधि धर्म और प्रतिषेध धर्म ( अस्तित्व और नास्तित्व धर्म ) का अधिकरण एक होनेसे दोनोंका अभेद सिद्ध हो जानेका प्रसंग उपस्थित होनेके कारण उन दोनोंके अधिकरणोंमें भी भेद सिद्ध होता हैवैधिकरण्य । ( ३ ) जिस रूप - स्वरूप - से पदार्थ ( विधिरूप - अस्तित्वरूप ) सामान्यका अधिकरण होता है और जिस रूपसे (पररूपसे ) वही पदार्थ ( प्रतिषेध रूप - नास्तित्व रूप ) विशेषका अधिकरण होता है, उन दोनों रूपों ( स्वरूप और पररूप ) को एक ही रूपसे ( स्वरूप और पररूप- इन दोनों रूपोंमेंसे किसी एक रूपसे ) वह पदार्थ धारण करता अथवा उन दोनों रूपोंसे धारण करता है ? ( स्वरूप और पररूप ) इन दोनों रूपोंमेंसे किसी एक ही रूपसे ( स्वरूप और पररूप पदार्थ में इन दोनों रूपों का सद्भाव होनेमें विरोध उपस्थित पदार्थमें स्वरूप और पररूपका सद्भाव होने में विरोध उपस्थित होता है । स्वरूप और पररूप इन दोनों स्वभावोंसे सामान्यरूप और विशेषरूप इन दोनों स्वभावों ( पदार्थों ) को धारण करता है, यदि ऐसा स्वीकार किया जाये तो अनवस्था दोष उपस्थित होता है । क्योंकि वे दोनों स्वरूप और पररूप स्वभावोंको, अन्य स्वरूप और पररूप- इन दो स्वभावोंसे, फिर इन स्वरूप और पररूप स्वभावोंको अन्य स्वरूप और पररूप-इन दो स्वभावोंसे धारण करनेकी अप्रामाणिक अनंत कल्पनायें करनी पड़ती हैं । ( ४ ) जिस स्वरूपसे पदार्थ सामान्य ( अस्तित्वका ) का अधिकरण होता है, उसी रूपसे सामान्य ( अस्तित्व ) और विशेष ( नास्तित्व ) इन रूपोंको ) धारण करता हो तो एक अभिन्न जाता है - एक ही स्वभावसे एक ही अभिन्न १. विभिन्नाधिकरणवृत्तित्वम् । २. अप्रामाणिकपदार्थपरम्परापरिकल्पनाविश्रान्त्यभावश्चानवस्था । २९
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy