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________________ २१२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ विवक्षावशाच्चानयोः प्रधानोपसर्जनभावः। एवमुत्तरभङ्गेष्वपि ज्ञेयम् , “अर्पितानर्पितसिद्धेः" इति वाचकवचनात् । इति द्वितीयः।। ___ तृतीयः स्पष्ट एव । द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयार्पिताभ्याम् एकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्यासम्भवाद् अवक्तव्यं जीवादिवस्तु । तथाहि-सदसत्त्वगुणद्वयं युगपद् एकत्र सदित्यनेन वक्तुमशक्यम् , तस्यासत्त्वप्रतिपादनासमर्थत्वात् । तथाऽसदित्यनेनापि, तस्य सत्त्वप्रत्यायनसामर्थ्याभावात् । न च पुष्पदन्तादिवत् साङ्केतिकमेकं पदं तद्वक्तुं समर्थम् , तस्यापि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः, शतृशानयोः संकेतितसच्छब्दवत् । अतएव द्वन्द्वकर्मधारवृत्त्योर्वाक्यस्य च न तद्वाचकत्वम् । इति सकलवाचकरहितत्वादु अवक्तव्यं वस्तु युगपत्सत्त्वासत्त्वाभ्यां प्रधानभावापिंताभ्यामाकान्तं व्यवतिष्ठते । न च सर्वथाऽवक्तव्यम, अवक्तव्यशब्देनाप्यनभिधेयत्वप्रसङ्गात् । इ सुगमाभिप्रायाः॥ न च वाच्यमेकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गीप्र नगनशिगवण्यात । इति चतर्थः । टोणास्त्रयः नास्तित्व धर्मकी प्रधानता और अस्तित्व धर्मकी गौणता होती है। प्रथम भंगमें अस्तित्व धर्मकी प्रधानता और नास्तित्व धर्मको गौणता, तथा द्वितीय भंगमें नास्तित्व धर्मकी प्रधानता और अस्तित्व धर्मकी गौणता होती है। जो धर्म गौण होता है उसका अभाव नहीं होता।) इस प्रकार उत्तरभंगोंमें भी समझना चाहिये। उमास्वाति वाचकने कहा भी है-"प्रधान और गौणको अपेक्षासे पदार्थोंकी विवेचना होती है।" यह दूसरा भंग है। (३-७) तीसरा भंग स्पष्ट है। जब हम क्रमसे वस्तुको स्वरूपको अपेक्षा अस्ति, और पररूपकी अपेक्षासे नास्ति कहते हैं, उस समय वस्तुका अस्तिनास्तिरूपसे ज्ञान होता है। यह स्यादस्तिनास्ति नामका तीसरा भंग है। (४) हम वस्तुके अस्ति और नास्ति धर्मको एक साथ नहीं कह सकते । जिस समय जीवको सत् कहते हैं, उस समय असत्, और जिस समय असत् कहते हैं, उस समय सत् नहीं कह सकते । क्योंकि अस्ति और नास्ति दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । शंका-जिस प्रकार चन्द्र और सूर्य दोनों वस्तुओंका ज्ञान 'पुष्पदंत' शब्दसे हो जाता है, उसी तरह अस्ति और नास्ति दोनोंका एक साथ ज्ञान किसी एक सांकेतिक शब्दसे मानना चाहिये । समाधान-पहले तो कोई ऐसा शब्द नहीं, जिससे अस्ति और नास्ति दोनों धर्मोका एक साथ ज्ञान किया जा सके। यदि दोनों धर्मोको कहनेवाला कोई एक शब्द मान भी लिया जाय, तो अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मोका क्रमसे ही ज्ञान हो सकता है । व्याकरणमें 'सत्' शब्दसे शतृ और शान दोनोंका क्रमपूर्वक ज्ञान होता है, एक साथ नहीं । अतएव द्वन्द्व, कर्मधारय अथवा किसी एक वाक्यसे सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मोंका एक साथ ज्ञान नहीं हो सकता। परस्पर विरुद्ध अस्तित्व और नास्तित्व दोनोंका ज्ञान किसी एक शब्दसे नहीं होता, अतएव प्रत्येक वस्तु एक साथ अस्ति और नास्ति भावकी प्रधानता होनेसे कथंचित् अवक्तव्य है । यदि हम पदार्थको सर्वथा अवक्तव्य मानें, तो हम पदार्थको अवक्तव्य शब्दसे भी नहीं कह सकते, अतएव प्रत्येक पदार्थको कथंचित् अवक्तव्य ही मानना चाहिये । यह स्यादवक्तव्य नामका चौथा भंग है । [( ५ ) जब हम वस्तुको स्वरूपको अपेक्षा सत् कह कर उसकी एक साथ अस्ति-नास्ति रूप अवक्तव्य रूपसे विवेचना करना चाहते हैं, उस समय वस्तु स्यादस्ति अवक्तव्य नामसे कही जाती है । (६) जब हम वस्तुकी नास्तित्व धर्मकी विवक्षासे एक साथ अस्ति-नास्ति रूप अवक्तव्य रूपसे विवेचना करना चाहते हैं, उस समय वस्तु स्यान्नास्ति अवक्तव्य कही जाती है। (७) प्रत्येक वस्तु क्रमसे स्व और पर रूपकी अपेक्षा अस्ति-नास्ति होनेपर भी एक साथ अस्ति-नास्ति रूप अवक्तव्य होनेके कारण स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य रूप है। ] शंका-एक वस्तुमें जिनका विधान और निषेध किया जाता है, ऐसे अनंत धर्मोका अस्तित्व स्वीकार
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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