SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी २०९ तदेवं जीवोपमर्दहेतुत्वाद् न मांसभक्षणादिकमदुष्टमिति प्रयोगः ।। अथवा भूतानां पिशाचप्रायाणामेषा प्रवृत्तिः । त एवात्र मांसभक्षणादौ प्रवर्तन्ते न पुनविवेकिन इति भावः । तदेवं मांसभक्षणादेदुष्टतां स्पष्टीकृत्य यदुपदेष्टव्यं तदाह । “निवृत्तिस्तु महाफला" | तुरेवकारार्थः । “तुः स्याद् भेदेऽवधारणे'' इति वचनात् । ततश्चैतेभ्यो मांसभक्षणादिभ्यो निवृत्तिरेव महाफला स्वर्गापवर्गफलप्रदा। न पुनः प्रवृत्तिरपीत्यर्थः । अतएव स्थानान्तरे पठितम् "वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद् यस्तयोस्तुल्यं भवेत् फलम् ॥१॥ एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः।। न सा ऋतुसहस्रेण प्राप्तु शक्या युधिष्ठिर" ॥ २ ॥ मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैः, तस्य सर्वविगहितत्वात् । तानेवं प्रकारानर्थान् कथमिव बुधाभासास्तीथिका वेदितुमर्हन्तीति कृतं प्रसङ्गेन । अथ केऽमी सप्तभङ्गाः, कश्चायमादेशभेद इति ? उच्यते । एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैकसत्त्वादिधर्मविषयप्रश्नवशाद् अविरोधेन प्रत्यक्षादिबाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छन्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणः सप्ता विन्यासः सप्तभङ्गीति गीयते । तद्यथा । १ स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भगः। इस प्रकार मांस, मैथुन आदिके सेवन करनेसे अनन्त जीवोंका नाश होता है, अतएव इनका सेवन करना दोषपूर्ण है। अथवा, मांस-भक्षण आदिमें भूत-पिशाचोंकी हो प्रवृत्ति होती है । भूत-पिशाच जैसे ही मांस खानेमें प्रवृत्त होते हैं, विवेकी लोग नहीं। अतएव "माँस आदिसे निवृत्त होना ही महान् फल है।" 'तु' शब्दका प्रयोग निश्चय अर्थमें होता है"। इसलिये मांस आदिके त्याग करनेसे स्वर्ग और मोक्षको प्राप्ति होती है । कहा भी है ___ "प्रत्येक वर्ष सौ बार यज्ञ करनेवाले और मांस भक्षण न करनेवाले दोनों पुरुषोंको बराबर फल मिलता है ॥१॥ हे युधिष्ठिर ! एक रात ब्रह्मचर्यसे रहनेबाले पुरुषको जो उत्तम गति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करनेसे भी नहीं होती ॥२॥ मद्यपानके विषयमें विशेष कहनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह सब जगह लोकमें निदनीय है। स प्रकारके अर्थों को अपनेको पंडित समझनेवाले कुवादी लोग नहीं समझ सकते । सप्तभंगी-जीव आदि पदार्थों में अस्तित्व आदि धर्मोके विषयमें प्रश्न उठानेपर, विरोधरहित प्रत्यक्ष आदिसे अविरुद्ध, अलग अलग अथवा सम्मिलित विधि और निषेध धर्मोके विचारपूर्वक 'स्यात्' शब्दसे युक्त सात प्रकारको वचनरचनाको सप्तभंगी कहते हैं । १ प्रत्येक वस्तु विधि धर्मसे कथंचित् अस्तित्व रूप ही १. अमरकोशे ३-२३६ । २. मनुस्मृतौ ५-५३ । २७
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy