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________________ २०२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालाया [अन्य. यो. व्य. श्लोक २२ धर्माः। हर्षविषादशोकसुखदुःखदेवनरनारकतिर्यक्त्वादयस्तु क्रमभाविनः। धर्मास्तिकायादिष्वपि असंख्येयप्रदेशात्मकत्वम् गत्याद्यपग्रहकारित्वम् मत्यादिज्ञानविषयत्वम् तत्तदवच्छेदकावच्छेद्यत्वम् अवस्थितत्वम् अरूपित्वम् एकद्रव्यत्वम् निष्क्रियत्वमित्यादयः। घटे पुनरामत्वम् पाकजरूपादिमत्त्वम् पृथुबुध्नोदरत्वम् कम्बुग्रीवत्वम् जलादिधारणाहरणसामर्थ्यम् मत्यादिज्ञानजेयत्वम् नवत्वम् पुराणत्वमित्यादयः। एवं सर्वपदार्थेष्वपि नानानयमताभिज्ञेन शाव्दानार्थाश्च पर्यायान् प्रतीत्य वाच्यम् ॥ और जीवत्व इत्यादि आत्माके सहभावी धर्म हैं। [ जो धर्म सदा द्रव्यके साथ रहते हैं, उन्हें सहभावी धर्म कहते हैं । सहभावी धर्म गुण भी कहे जाते हैं। (१) व्यवहार नयकी अपेक्षा साकार ज्ञानोपयोग और निराकार दर्शनोपयोग जीवका लक्षण है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग जीवसे कभी अलग नहीं होते। चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदशनके भेदसे दर्शनोपयोग चार, और मति, श्रुति अवधि, मनःपर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुति, और कुवधि ज्ञानके भेदसे ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है। निश्चय नयसे शुद्ध अखंड केवलज्ञान ही जीवका लक्षण है। नैयायिक लोग ज्ञान और दर्शनको आत्माका स्वभाव न मानकर उन्हें आत्माके साथ समवाय संबधसे संबद्ध मानते हैं, इसलिये जोवको उपयोग रूप बताया है। (२) जीव कर्ता है । जीव सांख्योंके पुरुषकी तरह कर्मोंसे निलिप्त होकर केवल द्रष्टाकी तरह नहीं रहता, किन्तु ज्ञानावरण आदि कर्मोंका स्वयं करनेवाला निमित्तकर्ता है। यहाँ सांख्य मतके निराकरणके लिये जीवको कर्ता बताया गया है। (३) यह जीव सुख-दुख रूप कर्मोके फलका भोग करता है । क्षणिकवादी बौद्धोंके मतमें जो कर्ता है, वह भोक्ता नहीं हो सकता, इसलिये जीवको भोक्ता कहा गया है । (४) जीवके आठ मध्यप्रदेश सदा एकसे अवस्थित रहते हैं। अयोगकेवली और सिद्धोंके सम्पूर्ण प्रदेश स्थिर रहते हैं। व्यायाम दुख, परिताप आदिसे युक्त जीवोंके आठ प्रदेशोंके अतिरिक्त बाकीके प्रदेश प्रवृत्तिशोल होते हैं। शेष जीवोंके प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति दोनों रूप प्रदेश होते हैं । (५) यह जीव स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णसे रहित है, इसलिये निश्चय नयसे अमूर्त है। (६) जीव लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंका धारक है । वास्तवमें जैन दर्शनके अनुसार नैयायिक, मीमांसक आदि दर्शनोंकी तरह जीवको प्रदेशोंकी अपेक्षा व्यापक नहीं माना, किन्तु जैन दर्शनमें ज्ञानकी अपेक्षा व्यवहार नयसे व्यापक कहा है । (७ ) जीवमें जीवत्व जीवका पारिणामिक ( स्वाभाविक ) भाव है। व्यवहार नयसे दस प्राण, और निश्चय नयसे चेतना जीवका जीवत्व है । ] हर्ष विषाद, शोक, सुख, दुख, देव, मनुष्य, नारक, तिर्यंच आदि अवस्था जीवके क्रमभावी अर्थात् क्रमसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले धर्म हैं। (क्रमभावी धर्मोंका दूसरा नाम पर्याय भी है ।) (१) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय प्रत्येक द्रव्यमें असंख्यात प्रदेश ( अविभाज्य अंश ) होते हैं । (२) जिस प्रकार जल मछलीके चलानेमें सहायता करता है, और वृक्षकी छाया पथिकके ठहरानेम निमित्त होती है, उसी तरह धर्म गतिशील पदार्थोकी गतिमें, और अधर्म ठहरनेवाले पदार्थोंकी स्थितिमे निमित्त कारण होते हैं। ( ३ ) धर्म और अधर्म मति, श्रुति आदि ज्ञानोंसे निश्चित किये जाते हैं । (४) धर्म और अधर्म अपने स्वरूपको छोड़कर पररूप नहीं होते, इसलिये परस्पर मिश्रण न होनेसे अवस्थित हैं । (५) धर्म और अधर्म स्पर्श आदिसे रहित होनेसे अरूपी हैं । ( ६ ) एक व्यक्तिरूप होनेसे एक है, तथा (७) क्रिया रहित होनेसे निष्क्रिय हैं । इसी प्रकार घड़ेमें कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन, कम्बुग्रीवापन ( शंख जैसी गर्दन ) जलधारण, जलआहरण, ज्ञेयपन, नयापन, पुरानापन आदि अनन्त धर्म रहते हैं। अतएव नाना नयोंकी दृष्टिसे शब्द और अर्थकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थमे अनन्त धर्म विद्यमान हैं। १. नित्यावस्थितान्यरूपाणि । आ आकाशादेकद्रव्याणि । निष्क्रियाणि च । असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मयोः। गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः। तत्त्वार्थाधिगमभाष्ये पंचमाध्याये सूत्राणि । २. देखिये द्रव्यसंग्रहवृत्ति गा. १० ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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