SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १९] स्याद्वादमञ्जरी पोतसमानं त्वच्छासनम् , कूपस्तम्भसंनिभः स्याद्वादः। पक्षिपोतोपमा वादिनः । ते च स्वाभिमतपक्षप्ररूपणोड्डयनेन मुक्तिलक्षणतटप्राप्तये कृतप्रयत्ना अपि तस्माद् इष्टार्थसिद्धिमपश्यन्तो व्यावृत्त्य स्याद्वादरूपकूपस्तम्भालङ्कृततावकीनशासनप्रवहणोपसर्पणमेव यदि शरणीकुर्वते, तदा तेषां भवार्णवाद् वहिनिष्क्रमणमनोरथः सफलतां कलयति नापरथा ।।इति काव्यार्थः ।।१९।। एवं क्रियावादिना प्रावादुकानां कतिपयकुग्रह निग्रहं विधाय सांप्रतमक्रियावादिनां लोकायतिकानां मतं सर्वाधमत्वादन्ते उपन्यस्यन् तन्मतमूलस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्यानुमानादि प्रमाणान्तरानङ्गीकारेऽकिंचित्करत्वप्रदर्शनेन तेषां प्रज्ञायाः प्रमादमादर्शयति क्षणमें नष्ट होता है, कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। जिस प्रकार दीपककी लौके प्रत्येक क्षणमें बदलते रहते हुए भी लौके पूर्व और उत्तर क्षणोंमें एकसा ज्ञान होनेके कारण यह वही लौ है, यह ज्ञान होता है, वैसे ही पदार्थों के प्रत्येक क्षणमें बदलते रहनेपर भी पदार्थोके पूर्व और उत्तर क्षणोंमें एकसा ज्ञान होनेसे पदार्थकी एकताका ज्ञान होता है। पदार्थों के प्रत्येक क्षणमें नष्ट होते हुए भी परस्पर भिन्न क्षणोंको जोड़नेवाली शक्तिको वासना, अथवा सन्तान कहते हैं । यह नाना क्षणोंकी परम्परा ही वासना है। इसी वासनाकी उत्तरोत्तर अनेक क्षणपरंपराके कार्य-कारण सम्बन्धसे कर्ता, भोक्ता आदिका व्यवहार होता है, वास्तवमें कर्ता और भोक्ता कोई नित्य पदार्थ नहीं है। जैन-वासना और क्षणसंतति परस्पर अभिन्न हैं, भिन्न हैं, अथवा अनुभय? ( क ) यदि वासना और क्षणसंतति अभिन्न हैं, तो दोमेंसे एकको ही मानना चाहिये । (ख) यदि वासना और क्षणसंततिको भिन्न मानो, तो दोनोंमें कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता । (ग) भिन्न और अभिन्न दोनों विकल्प स्वीकार न करके यदि वासना और क्षणसंतति भिन्न-अभिन्न के अभाव रूप मानो, तो अनेकान्त मत छोड़ कर, दूसरे वादियोंके मतमें भेद और अभेदसे विलक्षण कोई तीसरा पक्ष नहीं बन सकता। विज्ञानवादी बौद्ध-हम लोग आलयविज्ञानको वासना कहते हैं। अहंकार-संयुक्त चेतनाको आलयविज्ञान कहते हैं। आलयविज्ञानमें प्रवृत्तिविज्ञान रूप सम्पूर्ण धर्म कार्य रूपसे उत्पन्न होते हैं, इस आलयविज्ञानसे पूर्व क्षणसे उत्पन्न चेतनाकी शक्तिसे युक्त उत्तर क्षण उत्पन्न होता है। इसी आलयविज्ञान ( वासना ) से परस्पर भिन्न पूर्व और उत्तर क्षणोंमें सम्बन्ध होता है। जैन-क्षणिकवादी बौद्धोंके मतमें स्वयं आलयविज्ञान भी नित्य नहीं कहा जा सकता। अतएव क्षणिक आलयविज्ञान परस्पर असंबद्ध पूर्व और उत्तर क्षणोंको नहीं जोड़ सकता। इसलिये आलयविज्ञान द्वारा पूर्व क्षणसे उत्तरक्षणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव बौद्धोंको पदार्थोंको सर्वथा अनित्य न मान कर कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य ही मानना चाहिये । क्योंकि प्रत्येक वस्तु क्षणमें नयी-नयी उत्पन्न होनेकी अपेक्षा अनित्य है, तथा वस्तुको क्षण-क्षणमें पलटनेवाली भूत, भविष्य और वर्तमान पर्याय किसी नित्य द्रव्य ( वासना ) से परस्पर संबद्ध होती है, इसलिये अनित्य है। इस प्रकार क्रियावादियों ( आत्मवादी ) के सिद्धान्तोंका खंडन करके, अक्रियावादी ( अनात्मवादी ) लोकायत लोगोंके मतका खंडन करते हुए, अनुमान आदि प्रमाणोंके बिना प्रत्यक्ष प्रमाणकी असिद्धि बता कर उनके ज्ञानकी मन्दता दिखाते हैं १. क्रियावादिनो नाम येषामात्मनोऽस्तित्वं प्रत्यविप्रतिपत्तिः । ये त्वक्रियावादिनस्तेऽस्तीति क्रियाविशिष्टमात्मानं नेच्छन्त्येव, अस्तित्वे वा शरीरेण सहकत्वान्यत्वाभ्यामवक्तव्यत्वमिच्छन्ति । उत्तराध्ययनसूत्रे २३, शीलांकटीकायां। लोकाः निविचाराः सामान्यलोकास्तद्वदाचरन्ति स्मेति लोकायता लोकायतिका इत्यपि । बृहस्पतिप्रणीतमतत्वेन बार्हस्पत्याश्चेति । षड्दर्शनसमुच्चयोपरि गुणरत्नटीकायां पृ. १२२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy