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________________ १५८ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ करणम् । सद्रूपं चेत्, सतोऽपि करणेऽनवस्था। तृतीयभेदस्तु प्राग्वद्विरोधदुर्गन्धः। तन्नाणुरूपोऽर्थः सर्वथा घटते ॥ ___ नापि स्थूलावयविरूपः । एकपरमाण्वसिद्धौ कथमनेकतत्सिद्धिः । तदभावे च तत्प्रचयरूपः स्थूलावयवी वाङ्मात्रम् । किञ्च, अयमनेकावयवाधार इष्यते । ते चावयवा यदि विरोधिनः, तहिं नैकः स्थूलावयवी, विरुद्धधर्माध्यासात् । अविरोधिनश्चेत् , प्रतीतिबाधः । एकस्मिन्नेव स्थूलावयविनि चलाचलरक्तारक्तावृतानावृतादिविरुद्धावयवानामुपलब्धेः। अपि च, असौ तेषु वर्तमानः कात्स्न्येन एकदेशेन वा वर्तते ? कास्न्यून वृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकावयववृत्तित्वं न स्यात् । प्रत्यवयवं कात्स्न्येन वृत्तौ चावयविबहुत्वापत्तिः । एकदेशेन वृत्तौ च तस्य निरंशत्वाभ्युपगमविरोधः। सांशत्वे वा तेंऽशास्ततो भिन्नाः अभिन्ना वा? भिन्नत्वे पुनरप्यनेकांशवृत्तेरेकस्य कात्स्न्यैकदेशविकल्पानतिक्रमादनवस्था। अभिन्नत्वे न केचिदंशाः स्युः॥ ____ इति नास्ति बाह्योऽर्थः कश्चित् । किन्तु ज्ञानमेवेदं सर्वं नीलाद्याकारेण प्रतिभाति । बाह्यार्थस्य जडत्वेन प्रतिभासायोगात् । यथोक्तम् "स्वाकारबुद्धिजनका दृश्या नेन्द्रियगोचराः"। का अभाव मानना चाहिये। क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तुका लक्षण है। यदि एक क्षणके बाद रहनेवाले परमाणु अर्थक्रिया करते हैं, तो वह अर्थक्रिया सत्रूप है, असत्रूप, अथवा उभयरूप ? यदि परमाणुओंका कार्य असत्रूप है, तो परमाणुओंको असरूप खरगोशके सींगोंकी उत्पत्तिमें भी कारण होना चाहिये। यदि यह कार्य सत्रूप है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जो कार्य पहलेसे मौजूद था, उस कार्यको ही परमाणुओंने किया है। अतएव इस मान्यतामें अनवस्था दोष आता है। अतएव सत् और असत्रूप कार्यके न बननेसे सत्-असत्रूप कार्य भी नहीं बन सकता । अतएव परमाणु बाह्य पदार्थ नहीं हो सकते। बाह्य पदार्थोंको स्थूल अवयवीरूप भी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि जब एक परमाणुरूप बाह्य पदार्थोंकी सिद्धि नहीं होती, तो अनेक परमाणुरूप बाह्य पदार्थोंकी कैसे सिद्धि हो सकती है ? अतएव परमाणुओंके अभावमें परमाणुप्रचयरूप स्थूल अवयवीका सद्भाव होता है, यह कहना केवल कथन मात्र है। तथा, अवयवीके अनेक अवयव आधार माने गये हैं। ये अवयव परस्पर विरोधी है, या अविरोधी? यदि ये परस्पर विरोधी हैं, तो इनसे एक स्थूल अवयवी ही नहीं बन सकता, क्योंकि अवयवीमें विरोधी धर्मोंका अध्यारोप हो जाता है। यदि इन परमाणुओंको परस्पर अविरोधी मानो, तो यह अनुभवके विरुद्ध है, क्योंकि हमें प्रत्यक्षसे एक ही स्थूल अवयवीमें चल, अचल, रक्त, अरक्त, आवृत, अनावृत आदि विरुद्ध धर्म देखनेमें आते हैं। तथा, अवयवी अवयवोंमें सम्पूर्ण रूपसे रहता है, अथवा एक देशसे? यदि अवयवी अवयवोंमें सम्पूर्ण रूपसे रहते हैं, तो सम्पूर्ण अवयवीके एक अवयवमें समाप्त हो जानेसे अवयवी अनेक अवयवोंमें नहीं रह सकता। यदि अवयवी अनेक अवयवोंमें सम्पूर्ण रूपसे रहे भी, तो अनेक अवयवी मानने पड़ेंगे। यदि अवयवी अवयवोंमें एक देशसे रहे, तो अवयवमें अंशोंकी कल्पना होनेसे उसे निरंश एक अवयवी नहीं कह सकते; परन्तु अवयवी निरंश होता है। यदि कहो कि अवयवी अंश सहित होकर अवयवोंमें रहता है, तो ये अंश अवयवोंसे भिन्न है, या अभिन्न ? यदि अंश अवयवसे भिन्न है, तो प्रश्न होगा, कि अवयवी अवयवोंमें सम्पूर्ण रूपसे रहते हैं, अथवा एक देशसे ? इस तरह अनवस्था माननी पड़ेगी। यदि अंश अवयवसे अभिन्न हैं, तो अवयवोंको छोड़कर अवयवीके अंशोंका पृथक् अस्तित्व नहीं मान सकते । इस प्रकार परमाणुरूप या स्थूलरूप बाह्य अर्थका सद्भाव नहीं है; किन्तु जो कुछ नील आदि पदार्थोके आकार रूपसे प्रतिभासित होता है, वह सब ज्ञान ही है। क्योंकि जड़ अर्थात् अचेतन या ज्ञानहीन बाह्यार्थका अपने आपको जानना घटित नहीं होता। कहा भी है-"अपने आकाररूप बुद्धिको उत्पन्न करने
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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