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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ ] स्याद्वादमञ्जरी तदप्यसारम् । एकस्य निरंशस्य ज्ञानक्षणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलक्षणस्वभावद्वयायोगात्, व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावस्यापि च संबन्धत्वेन द्विष्ठत्वादेकस्मिन्नसंभवात् । किञ्च, अर्थसारूप्यमर्थाकारता । तच्च निश्चयरूपम्, अनिश्चयरूपं वा ? निश्चयरूपं चेत्, तदेव व्यवस्थापकमस्तु, किमुभयकल्पनया ? अनिश्चितं चेत्, स्वयमव्यवस्थितं कथं नीलादिसंवेदनव्यवस्थापने समर्थम् ? अपि च केयमर्थाकारता ? किमर्थग्रहणपरिणामः ? अहोस्विदर्थाकारधारित्वम् ? नाद्यः, सिद्धसाधनात् । द्वितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाकारानुकरणाज्जडत्वापत्त्यादिदोषाघ्रातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याभेदः साधीयान् । सर्वथातादाम्ये हि प्रमाणफलयोर्न व्यवस्था, तद्भावविरोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथातादात्म्ये सिद्ध्यति, अतिप्रसङ्गात् ॥ १४७ ननु प्रमाणस्यासारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यम्, अनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिज्ञान नील घटके आकार रूप होता है। नील घटके सदृश आकारको धारण करना ही ज्ञानका प्रामाण्य है ( अर्थ सारूप्यमस्य प्रमाणं ) । शंका- यदि ज्ञान सादृश्य ( नील सादृश्य ) से अभिन्न है, तो उसी ज्ञानको प्रमाण और प्रमिति दोनों रूप कहना चाहिये । एक ही वस्तुमें साध्य और साधन दोनों नहीं रह सकते । अतएव ज्ञान ( प्रमाण ) पदार्थोंके सदृश नहीं हो सकता । उत्तर - सारूप्य ( सदृश आकार ) से ही पदार्थों की प्रतीति होती है । क्योंकि पदार्थोंको जाननेवाला प्रत्यक्ष ज्ञान नील घटके आकारका हो कर ही नील घटका ज्ञान करता है । चक्षु आदिकी सहायतासे नील घटका ज्ञान नहीं हो सकता । अतएव हम ( बौद्ध ) लोग प्रमाण और प्रमितिमें कार्य कारण सम्बन्ध न स्वीकार करके व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक सम्बन्ध मानते हैं । सारूप्य व्यवस्थापक है, और नील ज्ञान व्यवस्थाप्य है । अतएव प्रमाण और प्रमितिको अभिन्न मानने से कोई विरोध नहीं आता । जैन-धर्मोत्तरका यह कथन ठीक नहीं। क्योंकि निरंश ज्ञान क्षण ( बौद्धोंके अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक है, इसलिये वे लोग घटको घट न कहकर घट-क्षण कहते हैं । इसी प्रकार यहाँ भी ज्ञान- क्षणसे क्षणिक ज्ञान समझना चाहिये ) में व्यवस्थाप्यरूप और व्यवस्थापकरूप दो स्वभाव नहीं बन सकते, और व्यवस्थाप्य व्यवस्थापक भावका सम्बन्ध दो पदार्थों में ही रहनेवाला होनेसे एक निरंश ज्ञान क्षणमें नहीं रह सकता । तथा, ज्ञानका जो अर्थके साथ सारूप्य है वह ज्ञानकी अर्थाकारता है । यह ज्ञानका अर्थ सारूप्य निश्चयरूप है, या अनिश्चयरूप ? यदि यह अर्थसारूप्य निश्चयरूप है, तो इस अर्थसारूप्यको ही व्यवस्थापक ( निश्चयात्मक ) मानना चाहिये, उसे व्यवस्थाप्यरूप और व्यवस्थापकरूपसे अलग-अलग मानने की आवश्यकता नहीं । यदि ज्ञानका वह अर्थसारूप्य अनिश्चित है, तो स्वयं अनिश्चित अर्थसारूप्यसे नील आदि पदार्थका ज्ञान निश्चित नहीं हो सकता । तथा, ज्ञानकी अर्थाकारतासे आपका क्या अभिप्राय है ? आप लोग ज्ञेय पदार्थको जाननेवाले ज्ञानके परिणामको अर्थाकारता कहते हैं, अथवा ज्ञानके अर्थके आकाररूप होनेको अर्थाकारता कहते हैं ? प्रथम पक्ष माननेमें सिद्धसाधन है, क्योंकि हम भी ज्ञानका स्वभाव पदार्थोंको जानना मानते हैं। यदि आप लोग ज्ञानके पदार्थोंके आकार रूप होनेको अर्थाकारता कहते हैं, तो ज्ञानको जड़ प्रमेयके आकार माननेमें ज्ञानको भी जड़ मानना पड़ेगा । अतएव प्रमाण और प्रमाणके फलको एकान्त अभिन्न नहीं मान सकते। क्योंकि प्रमाण और प्रमाणके फलका सर्वथा तादात्म्य सम्बन्ध माननेसे प्रमाण और प्रमाणके फलकी व्यवस्था नहीं बनती; क्योंकि एक निरंश ज्ञान क्षणमें व्यवस्थाप्य व्यवस्थापक भाव होनेमें विरोध आता है । प्रमाण और प्रमाणके फलमें सर्वथा तादात्म्य मानने पर 'ज्ञानका अर्थके साथ होनेवाला सारूप्य प्रमाण है और अर्थ ज्ञानका फल है' — यह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि इससे अतिप्रसंग उपस्थित हो जायेगा । शंका – सारूप्यके असारूप्यव्यावृत्ति रूप और अधिगति के अनधिगतिव्यावृत्तिरूप होनेसे व्यावृत्तियों में
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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